Up Board Class 12 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 8 गीत महादेवी वर्मा
पाठ - 8 गीत महादेवी वर्मा
कवि पर आधारित प्रश्न
1 . महादेवी वर्मा जी का जीवन परिचयदीजिए ।। इनकी रचनाओं का भी उल्लेख कीजिए ।।
उत्तर – – कवयित्री परिचय- श्रीमती महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च सन् 1907 ई० को होलिका दहन के पवित्र पर्व पर फर्रुखाबाद में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था ।। इनकी माता हेमरानी देवी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं ।। श्री कृष्ण के प्रति उनकी अटूट श्रद्धा थी ।। इन्हें कविता लिखने का शौक था ।। महोदवी वर्मा के पिता का नाम गोविन्द सहाय वर्मा था ।। इनके नानाजी भी ब्रजभाषा में कविता लिखते थे, उन्हीं से इन्हें काव्य-सृजन की प्रेरणा प्राप्त हुई ।। इन्दौर के मिशन स्कूल में प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद इलाहाबाद के ‘क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज’ में इन्होंने शिक्षा प्राप्त की ।। मात्र नौ वर्ष की अवस्था में ही इनका विवाह ‘स्वरूप नारायण वर्मा के साथ हुआ ।। तत्काल ही इनकी माता का निधन हो गया ।। इनका वैवाहिक जीवन भी सुखमय नहीं रहा परन्तु इन्होंने अपना अध्ययन का क्रम बनाए रखा ।। प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत विषय में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद इन्होंने ‘प्रयाग महिला विद्यापीठ’ में प्रधानाचार्या के पद को सुशोभित किया ।। कुछ वर्षों तक ये उत्तर प्रदेश विधानपरिषद की सदस्य भी रहीं ।। संगीत, दर्शन व चित्रकला में इनकी विशेष रूचि रही है ।। नारियों की स्वतन्त्रता के लिए संघर्षरत रहते हुए उनके अधिकार की रक्षा के लिए इन्होंने स्त्री शिक्षा की अनिवार्यता पर बल दिया ।। इनकी रचनाएँ सबसे पहले ‘चाँद’ पत्रिका में छपी ।। इसके बाद इन्होंने ‘चाँद’ पत्रिका सम्पादित भी की ।। इन्हें ‘यामा’ काव्य-कृति पर ‘ज्ञानपीठ’ पुरस्कार प्राप्त हुआ ।। इनकी काव्य प्रतिभा के लिए इन्हें ‘मंगलाप्रसाद’ पारितोषिक तथा ‘सेकसरिया पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया ।। कुमायूँ विश्वविद्यालय द्वारा इन्हें ‘डी . लिट्’ की उपाधि से अलंकृत किया गया तथा उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा साहित्य की साधिका महोदेवी वर्मा को ‘भारत-भारती’ पुरस्कार से तथा भारत सरकार द्वारा ‘पद्मभूषण’ उपाधि से सम्मानित किया गया ।। महोदेवी जी का स्वर्गवास 11 सितम्बर, सन् 1987 ई० को हो गया ।। रचनाएँ- महोदवी जी की प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैंनीहार- इस काव्य-संकलन में भावमय गीत संकलित हैं ।। इनमें वेदना का स्वर मुखरित हुआ है ।। रश्मि- इस संग्रह में आत्मा-परमात्मा के मधुर सम्बन्धों पर आधारित गीतों का संकलन है ।। नीरजा- इसमें प्रकृति-प्रधान गीत संकलित हैं ।। इन गीतों में सुख-दुःख की अनुभूतियों को वाणी मिली है ।। सान्ध्यगीत- इसमें संकलित गीतों में परमात्मा से मिलन का आनन्दमय चित्रण है ।। दीपशिखा- इसमें रहस्य-भावनाप्रधान गीतों का संकलन है ।। इनके अतिरिक्त स्मृति की रेखाएँ, अतीत के चलचित्र, श्रृंखला की कड़ियाँ, मेरा परिवार, पथ के साथी आदि इनकी गद्यरचनाएँ हैं ।। ‘यामा’ इनके विशिष्ट गीतों का संग्रह है ।। ‘सन्धिनी’ और ‘आधुनिक कवि’ भी इनके गीतों के संग्रह हैं ।।
2- महादेवी वर्मा की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए ।।
उत्तर – – भाषा-शैली- अपने विषय को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए कवि उपमानों का सहारा लेते हैं ।। ये उपमान दो प्रकार के होते हैं- सूक्ष्म और स्थूल ।। महादेवी जी ने अपने काव्य में सूक्ष्म उपमानों का प्रयोग किया है ।। लाक्षणिकता की दृष्टि से महादेवी जी का काव्य भव्य है ।। इन्होंने अपने अनेक गीतों में भावों के सुन्दर चित्र अंकित किए हैं ।। जिस प्रकार थोड़ी-सी रेखाओं और रंगों के माध्यम से कुशल चित्रकार किसी भी चित्र को उभार देता है, उसी प्रकार महादेवी जी ने भी थोड़े-से शब्दों के द्वारा से ही अनेक सुन्दर चित्र चित्रित किए हैं ।।
महादेवी जी के काव्य में प्रतीकों का बाहुल्य है ।। दीप, बदली, सान्ध्य-गगन, सरिता, सजल नयन, रात्रि, गगन, जलधारा, अन्धकार, किरण, ज्वाला, पंकज, विद्युत, प्रकाश आदि इनके प्रमुख प्रतीक हैं ।। इनके प्रतीकों के अर्थ भी अपने ही हैं; जैसे–’मैं नीर-भरी दुःख की बदली’ में ‘बदली’ का अर्थ ‘करुणा’ से परिपूर्ण हृदय वाली है ।। इसी प्रकार कुछ गिने-गिने प्रतीकों को अपनाकर तथा उनमें नवीन अर्थ भरकर महादेवी जी ने अपनी प्रतीक-योजना को समृद्ध और भावों को प्रभावशाली बना दिया है ।। महादेवी जी अपने शब्द-चयन के प्रति अत्यन्त जागरूक रही हैं ।। इन्होंने उन्हीं शब्दों का प्रयोग किया है, जो इनके भावों को प्रस्तुत करने में पूरी तरह समर्थ और सक्षम हैं ।। तत्सम शब्दों के साथ-साथ इन्होंने आवश्यकतानुसार तद्भव शब्दों को भी अपनाया ।। वर्णमैत्री भी इनकी शब्द-योजना की प्रमुख विशेषता है ।। महादेवी जी का काव्य गीतिकाव्य है ।। अपने गीतिकाव्य में महादेवी जी ने लोकगीत की शैली को भी स्वीकार किया ।। लोकगीतों का लयात्मक संगीत इनके गीतों में मिल जाता है ।। महादेवी वर्मा को छायावादी युग का प्रमुख आधार-स्तम्भ माना जाता है ।। सरस कल्पना, भावुकता एवं वेदनापूर्ण भावों को अभिव्यक्त करने की दृष्टि से इन्हें अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई हैं ।। वेदना को हृदयस्पर्शी रूप में व्यक्त करने के कारण ही इन्हें ‘आधुनिक युग की मीरा’ कहा जाता है ।। अपनी साहित्य-साधना के लिए महादेवी जी सदैव स्मरणीय रहेंगी ।।
1 . निम्नलिखित पद्यावतरणों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए
(क) चिर सजग . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . अपने छोड़ आना !
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘महादेवी वर्मा द्वारा रचित काव्यग्रन्थ ‘सान्ध्यगीत’ से ‘गीत-1’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।। प्रसंग- श्रीमती महादेवी वर्मा अपने साधना-पथ में तनिक भी आलस्य नहीं आने देना चाहतीं; अतः वे अपने प्राणों को सम्बोधित करते हुए कहती हैंव्याख्या-हे प्राण ! निरन्तर जागरूक रहनेवाली आँखें आज आलस्ययुक्त क्यों हैं और तुम्हारा वेश आज अस्त-व्यस्त क्यों है? आज अलसाने का समय नहीं ।। आलस्य और प्रमाद को छोड़कर अब तुम जाग जाओ; क्योंकि तुम्हें बहुत दूर जाना है ।। तुम्हें अभी बहुत बड़ी साधना करनी है ।। चाहे आज स्थिर हिमालय कम्पित हो जाए या फिर आकाश से प्रलयकाल की वर्षा होने लगे अथवा घोर अन्धकार प्रकाश को निगल जाए और चाहे चमकती और कड़कती हुई बिजली में से तूफान बोलने लगे तो भी तुम्हें उस विनाश-वेला में अपने चिह्नों को छोड़ते चलना है और साधना-पथ से विचलित नहीं होना है ।। महादेवी जी पुन: अपने प्राणों को उद्बोधित करती हुई कहती हैं कि हे प्राण ! तू अब जाग जा; क्योंकि तुझे बहुत दूर जाना है ।।
काव्य-सौन्दर्य- 1 . इन पंक्तियों में महादेवी जी ने एक सच्ची साधिका के रूप में साधना के मार्ग में आनेवाली विविध बाधाओं को प्रतीकात्मक शब्दावली में उल्लेख किया है ।।
2 . भाषा- शुद्ध खड़ीबोली ।।
3 . अलंकार- इन पंक्तियों में ‘हिमगिरि के हृदय में कम्प’, ‘व्योम का रोना’, ‘तिमिर का डोलना’ और ‘तूफान के बोलने’ आदि के माध्यम से प्रकृति का मानवीकृत रूप में वर्णन किया गया है, अतः यहाँ मानवीकरण अलंकार का प्रयोग हुआ है ।।
4 . रस- वीर ।।
5 . शब्दशक्ति- लक्षणा ।।
6 . गुण ओज एवं प्रसाद ।।
7 . छन्द- मुक्तक ।।
(ख) बाँध लेंगे . . . . . . . . लिएकारा बनाना !
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- यहाँ मनुष्य-मात्र के लिए साधना-पथ की बाधाओं को लाँघकर अपने लक्ष्य तक पहुँचने का आह्वान किया गया है ।।
व्याख्या- महादेवी जी कहती है कि सासांरिक बन्धन हैं तो बहुत आकर्षक, किन्तु वे मोम की भाँति कोमल और बलहीन हैं ।। हमें इन बन्धनों को तोड़कर अपने चिरन्तन लक्ष्य की ओर आगे बढ़ना है ।। इसी प्रकार तितलियों के रंगीन पंखों की तरह संसार के बाह्य, किन्तु क्षणिक सौन्दर्य भी तुम्हारे मार्ग की बाधा बनकर खड़े होंगे, किन्तु हमें उन पर मुग्ध नहीं होना है ।। भौरों के मधुर गुंजन की तरह सांसारिक जनों की दिखावटी मीठी-मीठी बातों से भ्रमित भी नहीं होना है ।। इतना ही नहीं, नमी व आर्द्रता से भरभर आने वाले सुन्दर फूलों की तरह सुन्दर आँखों में आँसू देखकर भी द्रवित नहीं होना है, अपितु सिद्धार्थ की भाँति इन सब का मोह त्यागकर अज्ञात प्रियतम के समीप पहुँचना है ।। कहीं ऐसा न हो कि हम अपनी ही छाया से भ्रमित हो जाएँ ।। इसलिए हमें अपनी आत्मा के सत्, चित्, आनन्द स्वरूप को भली-भाँति पहचानकर उसका परमात्मा से मिलन कराना है ।। हे जीवात्मारूपी पथिक तू जाग जा; क्योंकि तुझे बहुत दूर जाना है ।।
काव्य-सौन्दर्य- 1 . रूपक अलंकार का सुन्दर प्रयोग हुआ है ।।
2 . जगत् नश्वर है और परम ब्रह्म ही शाश्वत है ।।
3 . भाषा का प्रतीकात्मक रूप स्पष्टतया परिलक्षित हो रहा है ।।
4 . ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग किया गया है ।।
5 . भाषा-संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली ।।
6 . शैली- गीति ।।
7 . शब्द-शक्ति – लक्षणा ।।
8 . रस- शृंगार एवं शान्त ।।
9 . गुण- माधुर्य ।।
10 . छन्द- मुक्तक ।।
(ग) पंथ होने दो . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . विपुतों में दीपखेला ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘महादेवी वर्मा’ द्वारा रचित काव्यग्रन्थ ‘दीपशिखा’ से ‘गीत-2’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।।
प्रसंग-साधना के अपरिचित पथ की कठिनाइयों का विवरण प्रस्तुत करते हुए महादेवी कहती हैं
व्याख्या- साधना-पथ को अपरिचित होने दो और उस मार्ग के पथिक प्राण को भी अकेला रहने दो ।। मेरी छाया आज मुझे भले ही अमावस्या की रात्रि के गहन अन्धकार के समान घेर ले और मेरी काजल लगी आँखें भले ही बादल के समान आँसुओं की वर्षा करने लगें, फिर भी चिन्ता की कोई आवश्यकता नहीं है ।। इस प्रकार की कठिनाइयों को देखकर जो आँखें सूख जाती हैं, जिन आँखों के तिल बुझ जाते हैं और जिन आँखों की पलकें रूखी-रूखी-सी हो जाती है, वे कोई और आँखें होंगी ।। इस प्रकार के कष्टों के आने पर भी मेरी चिन्तन आर्द्र बनी रहेगी; क्योकि मेरे जीवन-दीप ने सैकड़ों विद्युतों में भी खेलना सीखा है; अर्थात् कष्टों से घबराकर पीछे हटा जाना मेरे जीवन-दीप का स्वभाव नहीं है ।।
काव्य-सौन्दर्य- 1 . महादेवीजी का वेदना-भाव भी अभिव्यक्त हुआ है ।।
2 . भाषा- शुद्ध परिष्कृत खड़ीबोली ।।
3 . शैलीलाक्षणिक प्रतीकात्मक पदावली और छायावादी शैली ।।
4 . अलंकार- अनुप्रास और भेदकातिशयोक्ति ।। 5 . रस- करुण तथा शृंगार ।।
6 . शब्दशक्ति – लक्षणा ।।
7 . गुण- प्रसाद ।।
8 . छन्द- मुक्तक ।।
(घ) हास का मधु . . . . . . . . . . . . . रहने दो अकेला !
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- अज्ञात प्रियतम की प्रसन्नता एवं रुष्टता दोनों को ही स्वीकार करके महादेवी जी के मन में सदैव उनके प्रति दृढ़ भक्ति-भावना एवं तल्लीनता रहती है ।।
व्याख्या-हे प्रियतम ! चाहे तुम अपनी प्रसन्नता का व्यंजक उल्लासमय वसन्त भेजो, चाहे भौंहे टेढ़ी करके अपनी प्रसन्नता (क्रोध) का सूचक पतझड़ मेरे पथ में सहेज दो ।। मेरे लिए इससे कोई अन्तर नहीं पड़ेगा; क्योंकि तुम्हारे प्रति गहन एवं अडिग प्रेम से पूरित मेरा यह हृदय अपनी विरह-व्यथा के आँसुओं( का पाद्य) और सुन्दर स्वप्नों (विविध अभिलाषाओं) का शतदल पंखुड़ियों वाले कमल का अर्घ्य) लेकर तुमसे मिलकर ही रहेगा ।। यह समझ लो कि मिलन में प्रेमी अकेला, किन्तु विरह में दुकेला हो जाता है ।। भाव यह है कि मिलन के काल में प्रेमी और प्रेमिका दोनों अपने-अपने में खोये (अकेले) रहते हैं; क्योंकि उन्हें विश्वास रहता है कि जब चाहे एक-दूसरे से मिल सकते हैं, पर विरह में प्रिय के पास न रहने से हर समय उसी का ध्यान रहता है, इसलिए प्रेमी हर समय अपने प्रिय के साथ रहता है (इसी कारण विरह को मिलन से श्रेष्ठ बताया गया है) ।। कवयित्री कहती है कि तुमसे भौतिक तल पर मिलन का पथ चाहे मेरा अपरिचित हो, किन्तु मुझे इसलिए चिन्ता नहीं है कि मैं उस पर अकेली चलती हुई भी मानसिक रूप से दुकेली हूँ; क्योंकि भावात्मक रूप में तुम हर समय मेरे पास जो बने रहते हो ।। तब फिर चिन्ता ही किस बात की हो सकती है ।।
काव्य-सौन्दर्य-1 . यहाँ प्रिय से मिलन की तन्मयता का सुन्दर चित्रण हुआ है ।। 2 . शैली की प्रतीकात्मकता और लाक्षणिकता द्रष्टव्य है ।। 3 . भाषा- शुद्ध खड़ीबोली ।। 4 . शैली- गीतात्मक ।। 5 . शब्द-शक्ति- लक्षणा ।। 6 . गुण- प्रसाद ।। 7 . अलंकाररूपक (स्वप्नशतदल), विरोधाभास (जान लो वह मिलन एकाकी, विरह में हे दुकेला) ।। 8 . रस- संयोग शृंगार ।। 9 . छन्दमुक्तक ।।
(ङ) मैं नीर भरी . . . . . . . . . . . मलय-बयार पली !
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘महादेवी वर्मा’ द्वारा रचित काव्यग्रन्थ ‘सान्ध्यगीत’ से ‘गीत-3’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।।
प्रसंग- इस गीत में कवयित्री स्वयं को दु:ख के अश्रुओं से परिपूरित बदली बताती हुई कहती हैं
व्याख्या- मैं अश्रुजल से भरी हुई दुःख की बदली हूँ ।। जिस प्रकार गर्मी पाकर मेघों का निर्माण हुआ होता है, जो जल से भरे होते हैं, उसी प्रकार मैं भी विरह-वेदना के ताप से उठने वाली बदली हूँ, जिसमें खरा अश्रुजल भरा है ।। मेरे हृदय की प्रत्येक धड़कन में मेरा अविनाशी प्रियतम बसा है ।। रुदन में ही मेरे घायल हृदय को सुख-शान्ति मिलती है ।। मेरा हृदय प्रियतम से मिलने के लिए व्याकुल है, यही उसके निरन्तर रुदन का कारण है ।। परमात्मारूपी प्रियतम से मिलने के लिए वेदना सहन करने में भी प्रसन्नता है ।। जिस प्रकार मेघ में विद्युत् के दीप जलते हैं, उसी प्रकार मेरे नेत्रों में व्यथा के दीप जलते हैं ।। जिस प्रकार वर्षा के कारण निर्झरिणी वेग से झरने लगती है, उसी प्रकार मेरे पलकरूपी दो तटों के मध्य प्रवाहित अश्रुओं के निर्झरिणी भी वेग से झरती है ।। जिस प्रकार वर्षा की बरसती बूंदों में रिमझिम-रिमझिम की संगीत भरा रहता है, उसी प्रकार मेरी भी प्रत्येक चरण-गीत में संगीत भरा है ।। जिस प्रकार वर्षा-काल में हवा के तेज झकारों से पुष्पों का पराग झड़ पड़ता है, उसी प्रकार मेरे प्रत्येक उच्छ्वास (दुःख के कारण वेगपूर्वक चलती साँस) से मेरे स्वप्नों का पराग झड़ता है; अर्थात् प्रियमिलन के जो मधुर सपने मैंने सँजोये हैं, वे बिखर जाते हैं, झड़ पड़ते हैं ।। जिस प्रकार आकाश इन्द्रधनुषी बहुरंगी मेघरूपी दुकूल (दुपट्टा) से सुशोभित है, उसी प्रकार मेरा हृदय भी प्रिय-विषयक बहुरंगी नाना अभिलाषाओं से रंजित (रँगा हुआ) है ।। जैसे मेघ की छाया में शीतल वायु बहने से ग्रीष्म के ताप से सन्तप्त प्राणियों को बड़ी सुख-शान्ति का अनुभव होता है, उसी प्रकार मेरी विरह-व्यथा में अपनेअपने दुःख की समान अभिव्यक्ति पाकर कितने ही दुःखी और पीड़ित प्राणी शान्ति का अनुभव करते हैं ।।
काव्य-सौन्दर्य- 1 . यहाँ महादेवी जी की विरह-वेदना मुखर हुई है ।।
2 . यहाँ लाक्षणिकता और प्रतीकात्मकता दर्शनीय है ।।
3 . भाषा- परिष्कृत खड़ीबोली ।। 4 . शैली- गीति ।।
5 . रस- वियोग शृंगार ।।
6 . शब्द-शक्ति- लक्षणा ।।
7 . गुण- माधुर्य ।।
8 . अलंकार- सांगरूपक, विरोभास (क्रन्दन में आहत विश्व हँसा), उपमा (दीपक-से जलते), रूपक (स्वप्न-राग), पुनरुक्तिप्रकाश (पग-पग) ।।
9 . छन्द-मुक्तक ।।
10 . भावसाम्य- कबीर कहते हैं
पिंजर प्रेम प्रकासिया, अंतर भया उजास ।।
मुख कस्तूरी महमही, बाणी फूटी बास॥
(च) विस्तृत नथ का . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . मिट आज चली !
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग-बदली के माध्यम से अपने जीवन की व्याख्या प्रस्तुत करती हुई महादेवी वर्मा कहती हैं
व्याख्या- बदली आकाश में रहती है ।। किन्तु विस्तीर्ण आकाश का कोई भी कोना उसका अपना नहीं होता है, वह तो मात्र इधर-उधर भ्रमण करती रहती है ।। उसका परिचय और उसका इतिहास तो केवल इतना ही है कि वह अभी-अभी उमड़ी थी और देखते-ही-देखते मिट गई ।। इस प्रकार महादेवी जी अपने जीवन के विषय में कहती हैं कि इस विस्तृत संसार का कोई भी भाग मेरा अपना नहीं है ।। मेरा ता केवल इतना ही परिचय और यही इतिहास है कि मैं कल आई थी और आज जा रही हूँ ।।
काव्य-सौन्दर्य-1 . इन पंक्तियों में महादेवी जी ने मानव-जीवन की वस्तुस्थिति का चित्रण किया है वस्तुतः मानव-जीवन क्षणिक है ।। जो आज है, वह कल नहीं होगा ।।
2 . निराशावादी दृष्टिकोण और जीवन के प्रति अनास्था का स्वर इन पंक्तियों में मुखरित हो उठा है ।।
3 . भाषा- सहज, सरल किन्तु शुद्ध खड़ीबोली ।।
4 . अलंकार- अनुप्रास और मानवीकरण ।।
5 . रस-वियोग शृंगार ।
। 6 . शब्दशक्ति-लक्षणा ।।
7 . गुण- माधुर्य ।।
8 . छन्द- मुक्तक ।।
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2 . निम्नलिखित सूक्तिपरक पंक्तियों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए
(क) चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना !
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित ‘महादेवी वर्मा’ द्वारा रचित ‘सान्ध्यगीत’ काव्य संग्रह से ‘गीत-1’ नामक शीर्षक से अवतरित है ।।
प्रसंग-प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में पथिक को सम्बोधित करके कुछ प्रेरणा दी जा रही है ।।
व्याख्या- कवयित्री महादेवी वर्मा कहती हैं कि हे पथिक ! तुम्हारी सदा सचेत रहने वाली आँखों में यह खुमारी कैसी है और तुम्हारी वेशभूषा इतनी अस्त-व्यस्त क्यों हो रही है? ऐसा प्रतीत हो रहा है कि तुम अपने घर पर ही विश्राम कर रहे हो ।। सम्भवतः तुम यह भूल गये हो कि तुम्हें लम्बी यात्रा पर जाना है ।। इसीलिए तुम जाग जाओ, क्योंकि तुम्हारा प्राप्य या लक्ष्य बहुत दूर है ।। इसीलिए तुम्हें आलस्य में पड़े न रहकर तुरन्त निकल जाना चाहिए ।। आशय यह है कि साधक को साधना-मार्ग में अनेक कठिनाईयों-बाधाओं का सामना करना पड़ता है ।। जो साधक इनसे घबराकर या हताश होकर बैठ जाता है, वह अपने लक्ष्य तक कभी नहीं पहुँच पाता ।। इसलिए साधक को आगे बढ़ते रहने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए ।।
(ख) अमरता-सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इस सूक्ति में आत्मा की अमरता के विषय में बताया गया है ।।
व्याख्या- जीवात्मा परमात्मा का एक अंश होने के कारण अमरता का उत्तराधिकारी है ।। उसे माया-मोह का आवरण हटाकर और ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा से मिल जाना चाहिए ।। फिर वह सांसारिक मोह-माया में लिप्त रहकर मिथ्या मृत्यु का वरण क्यों करना चाहता है? उसे अमरत्व के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए यत्नशील होना चाहिए ।।
(ग) हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इस सूक्ति में एकनिष्ठ एवं सच्चे प्रेम के परिणाम के सन्दर्भ में महादेवी कहती हैं
व्याख्या- यदि किसी के हृदय में अज्ञात प्रियतम के प्रति सच्चा प्रेम है तथा उसके हृदय में अपने प्रियतम से मिलने की एकनिष्ठ छटपटाहट विद्यमान है तो इस स्थिति में व्यक्ति की हार भी जीत ही मानी जाएगी, भाव यह है कि प्रेम की असफलता इसी में है कि हम एकनिष्ठ भाव से अपने प्रेम को प्रदर्शित करते रहें, चाहे हमारा अपने प्रियतम से मिलन हो या न हो ।।
(घ) पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित ‘महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘दीपशिखा’ काव्य संग्रह से ‘गीत-2’ नामक शीर्षक से अवतरित है ।।
प्रसंग- इस सूक्ति में हर परिस्थिति में निरन्तर लक्ष्य की ओर बढ़ते रहने का संकेत दिया गया है ।।
व्याख्या- महोदवी जी का उद्देश्य अज्ञात प्रियतम से मिलन हेतु निरन्तर अपने लक्ष्य-पथ पर चलते रहना है ।। इसी सन्दर्भ में वे कहती हैं कि यदि कोई भी लक्ष्य-पथ पर उनके साथ न चले और उसकी बाधाएँ भी उन्हें अकेले ही पार करनी पड़ें, तो भी वे निरन्तर अपने लक्ष्य-पथ पर अग्रसर होती रहेंगी ।।
(ङ) जान लो वह मिलन एकाकी विरह में है दुकेला !
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में कवयित्री ने मिलन एवं विरह की स्थितियों का वर्णन किया है ।।
व्याख्या- कवयित्री महादेवी वर्मा कहती हैं कि यह समझ लीजिए कि मिलन के समय में प्रेमी-प्रेमिका अकेला होता है, वह विरह के क्षणों में दुकेला हो जाता है ।। आशय यह है कि मिलन के समय में प्रेमी-प्रेमिका दोनों अपने-अपने में खोये रहते हैं, क्योंकि उन्हें इस बात का विश्वास रहता है कि वे जब चाहें एक-दूसरे से मिल सकते हैं ।। लेकिन विरह के क्षणों में प्रिय के पास न रहने से हर समय उसी का ध्यान रहता है, इसलिए वह दुकेला हो जाता है ।। विरह के समय प्रेमी हर समय अपने प्रिय के साथ रहता है, इसी कारण विरह को मिलन से श्रेष्ठ बताया गया है ।।
(च) मैं नीर भरी दुःख की बदली !
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित ‘महादेवी वर्मा’ द्वारा रचित ‘सान्ध्यगीत’ काव्य संग्रह से ‘गीत-3’ नामक शीर्षक से अवतरित है ।।
प्रसंग-प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में कवयित्री बदली के माध्यम से अपने जीवन की व्याख्या प्रस्तुत कर रही हैं ।।
व्याख्या- कवयित्री महादेवी वर्मा का कहना है कि मैं नीर-भरी दुःख की बदली हूँ; अर्थात् मेरा जीवन दुःख की बदलियों से घिरा हुआ है ।। जिस प्रकार बदली आकाश में रहती है: किन्तु दूर-दूर तक फैले हुए आकाश का कोई भी कोना उसका स्थायी निवास नहीं होता, वह तो इधर-उधर भ्रमण करती रहती है ।। उसी प्रकार इस विस्तृत संसार में भी ‘मेरा’ कहने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है ।। मेरा तो इतना ही परिचय और इतना ही इतिहास है कि मैं कल आयी थी और आज जा रही हूँ ।। कवयित्री का आशय यह है कि मानव-जीवन क्षणिक है; अर्थात् जो आज है,वह कल नहीं होगा, समग्र मानव-जीवन का मात्र इतना ही परिचय है और इतना ही इतिहास है ।।
(छ) विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपनाहोना !
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग-प्रस्तुत सूक्ति में महादेवी वर्मा ने संसार की निस्सारता की ओर संकेत किया है ।।
व्याख्या- महादेवी वर्मा अपनी तुलना जल (आँसुओं) से परिपूर्ण बदली से करती हुई कहती हैं कि यद्यपि मैं इस संसार में कहीं भी आने-जाने और इसका उपभोग अपनी इच्छा से करने के लिए उसी प्रकार स्वतन्त्र हूँ, जिस प्रकार कोई बदली सुविस्तृत आकाश में कहीं भी आने-जाने के लिए स्वतन्त्र होती है, लेकिन संसार में कणमात्र भी ऐसा नहीं है, जिसे मैं अपना कह सकूँ, जो मेरे महाप्रयाण के समय भी मेरा रहकर मेरे साथ जाए और मेरे उद्धार में कुछ सहायता पहुंचा सके ।। जैसे आकाश का कोई कोना ऐसा नहीं होता, जहाँ कोई बदली सदैव के लिए स्थायी रूप से रह सके ।। उसे हर हाल में आकाश को छोड़ना ही पड़ता है, उसी प्रकार मेरे लिए भी यह संसार निस्सार अर्थात् व्यर्थ है ।। मुझे एक-न-एक दिन इसे छोड़कर सदैव के लिए चले जाना है ।। तात्पर्य यही है कि व्यक्ति के लिए यह संसार व्यर्थ ही है; क्योंकि अन्त समय में उसे सबकुछ त्यागकर खाली हाथ ही यहाँ से जाना होता है ।।
अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्न
1 . महादेवी जी अपने गीत ‘चिर सजग आँखेंउनींदी’ के माध्यम से हमें क्या सन्देश देना चाहती हैं?
उत्तर – – ‘चिर सजग आँखे उनीदी’ के माध्यम से महादेवी जी हमें सन्देश देती हैं कि हमें अपने साधना-पथ में तनिक भी आलस्य नहीं आने देना चाहिए ।। महादेवी जी मानव जाति को प्रेरित करती हुई कहती हैं कि आलस्य और प्रमोद को छोड़कर अब तुम जाग जाओ, क्योंकि तुम्हें दूर जाना है ।। चाहे तुम्हारे मार्ग में कितनी ही बाधाएँ क्यों न आए तुम्हें अपने साधना-पथ से विचलित नहीं होना है ।। महादेवी जी कहती है कि संसार के आकर्षण तो तुम्हारी छायामात्र हैं; अतः उन आकर्षणों के माया-जाल में बंधकर तुम अपने वास्तविक लक्ष्य को कहीं भूल न जाना ।। वह कहती है कि मानवों ! तुम्हारा आलस्य तुम्हारे साधना जीवन के लिए अभिशाप बनकर उसे नष्ट-भ्रष्ट कर देगा ।। तू अविनाशी परमात्मा का अंश है, इसलिए तू इस सांसारिकता के जन्म-मरण के चक्र में स्वयं को मत फँसा ।। अपने पतन के निमित्त इस संसार को त्यागकर अपने उत्थान के निमित्त साधना-पथ पर आगे बढ़ने के लिए अज्ञान की नींद से जाग क्योंकि अभी तुझे साधना (आध्यात्मिकता) का लम्बा मार्ग तय करना है ।।
2 . महादेवी जी के दीपशिखा’ काव्य संग्रह से अवतरितगीत पथ होने दो अपरिचित’ का सारांश अपने शब्दों में लिखिए ।।
उत्तर – – प्रस्तुत गीत में महादेवी जी साधना के अपरिचित पथ की कठिनाइयों का विवरण प्रस्तुत करती है ।। महादेवी जी कहती हैं कि साधना-पथ को अपरिचित होने दो और उस मार्ग के पथिक प्राण को भी अकेला रहने दो ।। भले ही मेरी छाया आज मुझे अमावस्या के अंधकार के तरह घेर ले और मेरी काजल लगी आँखें बादल के समान बरसने लगे, फिर भी चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है ।। कठिनाइयों को देखकर जो आँखें सूख जाती है, या जिन आँखों के तिल बुझ जाते हैं या जिनकी पलकें रूखी-सी हो जाती हैं, वे कोई ओर आँखें होंगी ।। इस प्रकार की कठिनाइयों के आने पर भी मेरे मन शांत बना रहेगा क्योंकि कष्टों से घबराकर पीछे हट जाना मेरे जीवन का स्वभाव नहीं है ।। वे कोई ओर चरण होंगे अर्थात कोई ओर साधक होंगे जो मार्ग में आने वाले कष्टों से घबराकर वापस लौट आते हैं ।। मेरे चरण ऐसे नहीं है ।। मेरे चरणों ने तो दुःख सहने का संकल्प लिया हुआ है ।। मेरे चरण नव-निर्माण की इच्छा के कारण उत्साह से भरे हुए हैं ।। ये स्वयं को अमर मानकर निरन्तर पथ पर चल रहे हैं मेरे चरण ऐसे हैं ।। कि वे अपनी दृढ़ता से संसार की गोदी में छाए अंधकार को प्रकाश में बदल देंगे ।। महोदवी जी कहती हैं कि वो कहानी दूसरी होंगी, जिसमें लक्ष्य को प्राप्त किए बिना ही नायक के स्वर शान्त हो जाते हैं ।। और उसके पगों के चिहनों को समय की धूलि मिटा देती हैं ।। मेरी कहानी उसके विपरित है ।। अपने प्रियतम परमात्मा पर मर-मिटने के मेरे पवित्र दृढ़-निश्चय को देखकर आज प्रलय भी आश्चर्यचकित हो रही है कि इस साधक को विचलित करना सम्भव नहीं है ।। मैं अपने उस प्रियतम को प्राप्त करने के लिए मेरे आँसूरूपी मोतियो की चमक दूसरे साधकों के मनों में मेरे जैसे दृढ़ निश्चय की चिंगारिया भड़का देगी ।। वह परमात्मा से कहती है कि हे प्रियतम ! चाहे तुम मुझसे प्रसन्न हो जाओ अथवा अप्रसन्न, किन्तु मेरा अडिग हृदय वेदना का जल और स्वप्नों का कमल पुष्प लिए तुम्हारी सेवा में अवश्य उपस्थित होगा ।। मैं तुमसे अवश्य मिलूंगी ।। यद्यपि मेरा साधना-पथ अपरिचित है और मेरे प्राणों का पथिक अकेला हैं, फिर भी चिन्ता की कोई बात नहीं; क्योंकि मुझे यह दृढ विश्वास है कि एक न-एक दिन मैं अपने प्रियतम को अवश्य पा लूँगी ।।
3 . महादेवी जी ने स्वयं की तुलना बदली से क्यों की है?
उत्तर – – महादेवी जी ने अपने दुःखों के तथा विरह के कारण स्वयं की तुलना बदली से की हैं, जिस प्रकार बदली पानी से भरी रहती है, उसी प्रकार उनकी आँखें भी अश्रुओं से भरी रहती हैं ।। जिस प्रकार बदली में उसके कम्पन का स्थायित्व रहता है; उसी तरह उनके प्राणों में विरह के कारण दुःख का कम्पन स्थायी रूप से व्याप्त है ।। जिस प्रकार बदली की गर्जना सुनकर ताप से ग्रस्त विश्व प्रसन्न होता है, उसी प्रकार उनके रुदन से भी घायल संसार को प्रसन्नता मिलती है ।। जिस प्रकार बदली में बिजली चमकती है और उसके जल से नदियाँ बहती हैं उसी प्रकार उनके नेत्र भी विरह वेदना के समान जलते हैं और उनके पलकों से नदी के जल के समान विरह के अश्रु निरन्तर बहते रहते हैं ।। बदली के बरसने से जिस प्रकार आकाश इन्द्रधनुष की रंगीन आभा से विभूषित हो जाता है और मलयगिरि से आने वाली शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चलने लगती है, उसी प्रकार वे भी अपने प्रियतम की आभा से मण्डित रहती है और उनकी स्मृति की छाया उन्हें मलय पवन के समान लगती है ।। महादेवी कहती हैं जिस प्रकार बदली के छाने से न तो आकाश मलिन होता है और न उसके मिट जाने पर कोई चिह्न शेष रहता है, फिर भी मेरे आने की स्मृति से संसार में उल्लास उत्पन्न हो जाएगा ।। महादेवी जी कहती हैं कि जिस प्रकार बदली आकाश में इधर-उधर भ्रमण करती रहती है किन्तु आकाश का कोई भी कोना उसका अपना नहीं है कवयित्री भी अपने जीवन की तुलना उससे करती हैं कि बदली की भाँति इस संसार में मेरा’ कहने को कुछ भी नहीं है ।। मेरा तो परिचय और इतना है कि मैं कल आयी थी और आज जा रही हूँ ।।
4 . कवयित्री दृढ़तापूर्वक साधना-मार्ग पर क्यों बढ़ना चाहती है?
उत्तर – – कवयित्री दृढ़तापूर्वक साधना के मार्ग पर इसलिए बढ़ना चाहती है क्योंकि वह साधना-मार्ग के अनेक सोपानों को पार कर अपने लक्ष्य (परमात्मा) को प्राप्त करना चाहती है ।। वह संसार की मोह-माह का त्याग कर देना चाहती है ।। वह सांसारिकता के जन्म-मरण के चक्र से स्वयं को छुड़ाना चाहती है ।।
काव्य-सौन्दर्य से संबंधित प्रश्न
1 . “चिर सजग . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . चिह्न अपने छोड़ आना !
“पंक्तियों में प्रयुक्त रस तथा छन्द का नाम लिखिए ।।
उत्तर – – प्रस्तुत पंक्तियों में वीर रस तथा मुक्तक छन्द का प्रयोग हुआ है ।।
2 . “पंथ होने दो . . . . . . . . . . . . . . . . . . . दीपखेला !”पंक्तियों का काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।।
उत्तर – – काव्य-सौन्दर्य- 1 . महादेवी जी का वेदना-भाव अभिव्यक्त हआ है ।। 2 . भाषा- शद्ध परिष्कत खडीबोली ।। 3 . शैली लाक्षणिक प्रतीकात्मक पदावली और छायावादी शैली ।। 4 . अलंकार- अनुप्रास और भेदका विशयोक्ति ।। 5 . रस- करुण तथा श्रृंगार ।। 6 . शब्दाशक्ति- लक्षणा ।। 7 . गुण- प्रसाद, 8 . छन्द- मुक्तक ।।
3 . “हास का मधु . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . दो अकेला !”पंक्तियों में निहित अलंकारों का नाम बताइए ।।
उत्तर – – प्रस्तुत पंक्तियों में रूपक तथा विरोधाभास, मानवीकरण आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है ।।
4- “मैं नीर-भरी . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . मलय बयार पली ।। “पंक्तियों में निहित रस व अलंकार का नाम लिखिए ।।
उत्तर – – प्रस्तुत पंक्तियों में वियोग श्रृंगार रस व सांगरूपक, विरोधाभास, उपमा, रूपक, एवं पुनरुक्तिप्रकाश अलंकारों का प्रयोग हुआ
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