Up Board Class 12 Samanya Hindi काव्यांजलि Chapter 9 पुरूरवा, उर्वशी, अभिनव मनुष्य रामधारी सिंह दिनकर
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पाठ - 9 पुरूवा, उर्वशी, अभिनव मनुष्य का सम्पूर्ण हल
कवि पर आधारित प्रश्न
1 . रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी का जीवन परिचय देते हुए इनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए ।।
उत्तर – – कवि परिचय- महान साहित्यकार रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म 23 सितम्बर, सन् 1908 ई० में बिहार के जिला बेगुसराय (पुराना जिला मुंगेर) के सिमरिया नामक ग्राम में हुआ था ।। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की माता का नाम श्रीमति मनरूप देवी तथा पिता का नाम श्री रवि सिंह था ।। स्नातक की शिक्षा प्राप्त करके इन्होंने एक माध्यमिक विद्यालय में प्रधानाचार्य के पद को सुशोभित किया ।। बिहार सरकार की सेवा में ‘सब रजिस्ट्रार’, ‘भागलपुर विश्वविद्यालय’ के ‘कुलपति’, मुजफ्फरपुर में महाविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया ।। ये राज्यसभा के सदस्य भी रहे ।। इन्हें सन् 1964 ई० में केन्द्र सरकार द्वारा ‘हिन्दी समिति’ का परामर्शदाता नियुक्त किया गया ।। ‘मिडिल’ कक्षा में पढ़ते हुए ही इन्होंने ‘वीरबाला’ नामक काव्य-कृति का सृजन किया था ।। अपने युवा पुत्र के निधन के कारण ये अत्यधिक व्यथित हो गए ।। 24 अप्रैल, सन् 1974 ई० में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का मद्रास में स्वर्गवास हो गया ।। सन् 1972 ई० में इन्हें इनकी बहुचर्चित कृति ‘उर्वशी’ के लिए ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ ।। इनकी साहित्य प्रतिभा के सम्मान में भारत सरकार द्वारा इन्हें सन् 1959 ई० में ‘पदम्भूषण’ उपाधि से अलंकृत किया गया ।। इन्होंने आलोचक, श्रेष्ठ विचारक व सफल निबन्धकार होने के साथ ही काव्य-सृजन के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।। दर्शन, इतिहास, साहित्य व राजनीति आदि क्षेत्रों में इनकी विशेष रुचि रही ।।
रचनाएँ- ‘दिनकर’ जी मूलतः सामाजिक चेतना के कवि थे ।। इनके व्यक्तित्व की छाप इनकी प्रत्येक रचना में दिखाई देती है ।। इनकी प्रमुख काव्य-रचनाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार हैरेणुका- इस कृति में अतीत के गौरव के प्रति ‘दिनकर’ जी का आदर-भाव तथा वर्तमान की नीरसता से दुःखी मन की वेदना का परिचय मिलता है ।।
हुंकार- इस काव्य-रचना में कवि ने समाज की वर्तमान दशा के प्रति आक्रोश व्यक्त किया है ।।
रसवन्ती- इस रचना में सौन्दर्य का काव्यमय वर्णन दृष्टिगोचर होता है ।।
सामधेना- इसमें सामाजिक चेतना, स्वदेश-प्रेम तथा विश्व-वेदना सम्बन्धी कविताएँ संकलित हैं ।।
कुरुक्षेत्र- इसमें ‘महाभारत’ के ‘शान्ति-पर्व’ के कथानाक को आधार बनाकर वर्तमान परिस्थितियों का चित्रण किया गया है ।।
उर्वशी और रश्मिरथी- इन दोनों काव्य-कृतियों में विचार-तत्त्व की प्रधानता है ।। ये ‘दिनकर’ के प्रसिद्ध प्रबन्ध-काव्य हैं ।।
परशुराम की प्रतीक्षा- चीनी आक्रमण के समय देशवासियों को ललकारने के लिए ‘दिनकर’ जी ने इस काव्य की रचना की ।।
आत्मा की आँखें- इसमें अंग्रेजी की कुछ नई प्रयोगशील कविताओं के अनुवाद हैं ।।
नीम के पत्ते- इसमें आज के राजनेताओं पर तीखे व्यंग्य किए गए हैं ।।
हारे कोहरिनाम- यह ‘दिनकर’ जी का अन्तिम काव्य है और यह करुण, निराश, दीन, आतुर आत्मा की विनयपत्रिका है ।। ‘
दिनकर’ जी की गद्य-रचनाओं में इनका ग्रन्थ ‘संस्कृति के चार अध्याय’ उल्लेखनीय है ।। इसके अतिरिक्त इन्होंने कई समीक्षात्मक ग्रन्थ भी लिखे हैं ।।
2 . रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी की भाषा-शैली पर प्रकाश डालते हुए इनका साहित्यिक योगदान बताइए ।।
उत्तर – – भाषा-शैली- ‘दिनकर’ जी भाषा के मर्मज्ञ हैं ।। इनकी भाषा परिष्कृत खड़ी बोली है, जो बोलचाल की भाषा से थोड़ी-सी अलग है ।। इनकी भाषा में चित्रात्मकता, ध्वन्यात्मकता एवं मनोहारिता है ।। ‘दिनकर’ जी के काव्य में मुख्यतः उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त आदि अलंकारों के प्रयोग के साथ-साथ विविध प्रकार के छन्दों का प्रयोग भी हुआ है ।। ‘दिनकर’ जी ने अपनी रचनाओं में अपनी विद्रोहशील मनोवृत्ति और सौन्दर्यचेतना को वाणी देने के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रवृत्तियों को भी अभिव्यक्ति प्रदान की है ।। ‘अर्द्धनारीश्वर’ भी इनकी एक महत्वपूर्ण रचना है ।। साहित्यिक योगदान- ‘दिनकर’ जी आरम्भ से ही संसार के प्रति निष्ठावान, सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति सजग और जनसाधारण के प्रति समर्पित कवि रहे है ।। तभी तो इन्होंने छायावादी कवियों की भाँति काव्य-रचना न करके रेणुका’ का आलोक छिटकाया ।। फिर ‘रसवन्ती’ के प्रणयी गायक के रूप में इनका कुसुम कोमल व्यक्तित्व प्रकट हुआ ।। लेकिन देश की विषम परिस्थितियों की पुकार ने इनको भावुकता, कल्पना और स्वप्न के रंगीन लोक से खींचकर ऊबड़-खाबड़ धरती पर लाकर खड़ा कर दिया तथा शोषण की चक्की में पिसते हुए जनसाधारण और उनके भूखे-नंगे बच्चों का प्रबल समर्थक बना दिया ।। फिर देश के मुक्तिराग के ओजस्वी गायक के रूप में इनका व्यक्तित्व निखर उठा ।। ‘दिनकर’ के विद्रोहशील व्यक्तित्व को अपने देश के पौराणिक आख्यानों में जो असंगतियाँ दिखाई दीं, उन्हें मिटाने के लिए इन्होंने ‘कुरुक्षेत्र’, ‘रश्मिरथी’ जैसे कथाकाव्यों की रचना की ।। पहली रचना कुरुक्षेत्र तो वस्तुतः कथाकाव्य नहीं, वरन् विचारकाव्य है; क्योंकि इसमें हिंसा और अहिंसा की विचारधाराओं का द्वन्द्व प्रदर्शित किया गया है ।। ‘रश्मिरथी’ में वीर कर्ण का आख्यान है ।। जाग्रत पुरुषार्थ के कवि ‘दिनकर’ शान्तिप्रियता और अहिंसा की आड़ में फैलने वाली निर्बलता और अकर्मण्यता को व्यक्ति और राष्ट्र दोनों के लिए घातक मानते हैं ।। इनके व्यक्तित्व का यही प्रखर स्वरूप चीनी आक्रमण के समय प्रज्वलित हो उठा था और इन्होंने देशवासियों को ललकारते हुए परशुराम की प्रतीक्षा’ शीर्षक से रचना प्रस्तुत की थी ।। ‘दिनकर’ की काव्य-प्रतिभा का चरमोत्कर्ष इनके नाटकीय कथाकाव्य ‘उर्वशी’ में दृष्टिगत होता है ।। इनका इस रचना का कथा प्रसंग तो कालिदास के नाटक ‘विक्रमोर्वशीयम्’ से लिया है, लेकिन इसका प्रस्तुतीकरण आधुनिक-बोध से अनुप्रमाणित है ।।
व्याख्या सम्बन्धी प्रश्न
1 . निम्नलिखित पद्यावतरणों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए
(क) कौन है अंकुश . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . उच्छल है ।।
कौन है अंकुश, इसे मैं भी नहीं पहचानता हूँ।
पर, सरोवर के किनारे कण्ठ में जो जल रही है,
उस तृषा, उस वेदना को जानता हूँ।
सिन्धु-सा उद्दाम, अपरम्पार मेरा बल कहाँ है?
गूंजता जिस शक्ति का सर्वत्र जयजयकार,
उस अटल संकल्प का सम्बल कहाँ है?
यह शिला-सा वक्ष, ये चट्टान-सी मेरी भुजाएँ,
सूर्य के आलोक से दीपित, समुन्नत भाल,
मेरे प्राण का सागर अगम, उत्ताल, उच्छल है।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘रामधारी सिंह दिनकर’ द्वारा रचित काव्यग्रन्थ ‘उर्वशी’ से ‘पुरूरवा’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।।
प्रसंग-उर्वशी नामक एक अप्सरा स्वर्ग से आकर एक सरोवर पर उतरती है ।। उसकी भेंट पुरूरवा से होती है ।। पुरूरवा उस पर मोहित हो जाते हैं ।। वे उर्वशी के समक्ष अपनी शक्ति का परिचय देते हैं ।।
व्याख्या- पुरूरवा कहते हैं कि मैं उस अंकुश या प्रतिबन्ध के विषय से नहीं जानता हूँ, जो बार-बार मुझे रोक रहा है; किन्तु मैं उस प्यास की असीम व्यथा और घोर यन्त्रणा को अच्छी प्रकार पहचानता हूँ, जो इसी सरोवर के किनारे पर मीठी कसक बनकर मेरे कण्ठ में जल रही है ।। सिन्धु के समान प्रबल और उद्दण्ड तथा ऊँची-ऊँची हिलोरे लेता हुआ मेरा बल इस समय मेरा साथ छोड़कर कहाँ चला गया है? मेरी जिस सामर्थ्य और शक्ति की जय-जयकार दसों दिशाओं में होती थी, उस अटल और धुव्र-निश्चय का सहारा इस समय कहाँ चला गया है? मेरा वक्षस्थल शिला के समान दृढ़ है तथा मेरी भुजाएँ चट्टानों के समान मजबूत हैं ।। मेरा उन्नत मस्तक सूर्य के प्रकाश के समान आलोकित और प्रकाशित हो रहा है ।। मेरे प्राण अथाह एवं उछलती तरंगोंवाले सागर के समान हैं, जिसमें ऊँची-नीची लहरें उठती रहती हैं; अर्थात् मेरे प्राणों की गहराई नापना सरल नहीं हैं ।।
काव्य-सौन्दर्य-1 . इन पंक्तियों में पुरूरवा के उदात्त चरित्र का निर्माण हुआ है ।। 2 . ‘दिनकर’ जी के ‘उर्वशी’ महाकाव्य का आधार कालिदास का ‘विक्रमोर्वशीय’ नाटक है ।। 3 . भाषा- परिष्कृत खड़ीबोली ।। 4 . अलंकार- विशेषाक्ति, उपमा, रूपक और अनुप्रास ।। 5 . रस- वीर ।। 6 . शब्दशक्ति – लक्षणा ।। 7 . गुण- ओज ।। 8 . छन्द- मुक्त ।।
(ख) सामने टिकते नहीं . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . स्यन्दन चलाता हूँ ।।
सामने टिकते नहीं वनराज, पर्वत डोलते हैं,
काँपता है कुण्डली मारे समय का व्याल,
मेरी बाँह में मारुत, गरुड़ गजराज का बल है।
मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,
उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं
अन्ध तम के भाल पर पावक जलाता हूँ,
बादलों के सीस पर स्यन्दन चलाता हूँ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- पुरूरवा उर्वशी के समक्ष अपनी सामर्थ्य का बखान करते हुए कहते हैं
व्याख्या- हे उर्वशी ! मेरी शक्ति के समक्ष वनराज सिंह भी नहीं ठहर सकता ।। मेरे भय से पर्वत तक काँप जाते हैं तथा समयरूपी सर्प कुण्डली मारकर काँपता रहता है ।। मेरी भुजाओं में वायु, गरुड़ और हाथी का बल है ।। हे उर्वशी ! मैं नश्वर मनुष्य की विजय का शंखनाद हूँ; अर्थात् मेरी शक्ति इस संसार में मानव की वीरता का परिचय देनेवाली है ।। मैं समय को आलोकित करने वाला सूर्य हूँ ।। मैं अन्धकार के मस्तक पर अग्निशिखा प्रज्वलित कर उसका विनाश करने में सक्षम हूँ ।। मैं बादलों के ऊपर अपना रथ चलाता हूँ, अर्थात् मेरी जाति सर्वत्र है; बाधारहित है ।।
काव्य-सौन्दर्य-1 . इन पंक्तियों में पुरूरवा की शारीरिक शक्ति का अतिशयोक्तिपूर्ण चित्रण हुआ है ।।
2 . भाषा- परिष्कृत खड़ीबोली ।। 3 . अलंकार- विशेषोक्ति, उपमा, रूपक और अनुप्रास ।।
4 . रस- वीर ।।
5 . शब्दाशक्ति- लक्षणा ।।
6 . गुण-ओज ।।
7 . छन्द-मुक्त ।।
पर न ……………………………….. उसे मुस्कान से ||
पर, न जानें बात क्या है!
इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है,
सिंह से बाँहें मिला कर खेल सकता है,
फूल के आगे वही असहाय हो जाता,
शक्ति के रहते हए निरुपाय हो जाता।।
विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से,
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से।
शब्दार्थ इन्द्र का आयुध -इन्द्र का अस्त्र, वज्र; असहाय -लाचार;
निरुपाय -बिना उपाय के विद्ध -बिन्ध जाना; बंकिम -तिरछे; नयन -आँख; रूपसी-रूपवती, सुन्दर।
सन्दर्भ पूर्ववत्।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में पुरूरवा अति वीर पुरुषों के भी नारी के सौन्दर्य के समक्ष नतमस्तक हो जाने पर आश्चर्य व्यक्त कर रहे हैं।
व्याख्या पुरूरवा अपनी वीरता का बखान कर उर्वशी से कहते हैं कि वे अब तक इस रहस्य का पता नहीं लगा सके कि जो महावीर रणभूमि में इन्द्र के वज्र का सामना करने से पीछे नहीं हटता और जिसमें शेर के साथ बाहें मिलाकर खेलने का सामर्थ्य हो अर्थात् जो इन्द्र और शेर को भी परास्त करने में सक्षम हो, वह फूल-सी कोमल नारी के समक्ष स्वयं को विवश क्यों पाता है? अपार शक्ति का स्वामी रहते हुए भी वह नारी के सम्मुख असहाय क्यों हो जाता है?
सम्पूर्ण जगत् को अपनी वीरता से मुग्ध कर देने वाले वीर पुरुष का सुन्दर स्त्री के नेत्ररूपी बाणों से सहज ही घायल हो जाना सचमुच आश्चर्य से परिपूर्ण है। सुन्दरी की जरा-सी मुस्कान पर पुरुषों का मुग्ध हो जाना और अपना सर्वस्व हार जाना विस्मय नहीं तो और क्या है?
काव्य सौन्दर्य
भाव पक्ष
1- यहाँ नारी के सौन्दर्य के समक्ष पुरुष के विवश होने का भाव व्यक्त किया गया है।
2- रस — वीर एवं श्रृंगार
3- भाषा – शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली
4- शैली – प्रबन्धात्मक
5- छन्द – मुक्त
6- अलंकार – अनुप्रास, रूपक एवं विरोधाभास
7- गुण ओज एवं माधुर्य
8- शब्द शक्ति लक्षणा
(ग) पर, क्या बोलूँ . . . . . . . . . . . . . . . . . महातल से निकली ।।
पर, क्या बोलूँ? क्या कहूँ ?
भ्रान्ति यह देह-भाव ।
मैं मनोदेश की वायु व्यग्र, व्याकुल, चंचल;
अवचेत प्राण की प्रभा, चेतना के जल में
मैं रूप-रंग-रस-गन्ध-पूर्ण साकार कमल ।
मैं नहीं सिन्धु की सुता
तलातल-अतल-वितल-पाताल छोड़,
नील समुद्र को फोड़ शुभ्र,
झलबल फेनांशकु में प्रदीप्त
नाचती ऊर्मियों के सिर पर
मैं नहीं महातल से निकली !
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘रामधारी सिंह दिनकर’ द्वारा रचित काव्यग्रन्थ ‘उर्वशी’ से ‘उर्वशी’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।।
प्रसंग-पुरूरवा के यह पूछने पर कि ‘तुम कौन हो’, उर्वशी परिचय दे रही है ।।
व्याख्या- उर्वशी कहती है कि मैं अपने विषय में क्या बताऊँ कि मैं कौन हूँ? बस इतना समझ लो कि मैं जो तुम्हें नारी देह धारण किये दिख रही हूँ, वह एक सम्मोहक भ्रम है, छलावा है ।। वस्तुतः अप्सरा दिव्य नारी होती है, जिसका शरीर मानव के समान स्थूल न होकर सूक्ष्म तेजोमय होता है ।। इसलिए उर्वशी कहती है कि मुझे जो तुम स्थूल देह धारण किये हुए देख रहे हो, यह एक भ्रम है; क्योंकि यह मेरा वास्तविक स्वरूप नहीं ।। मेरा वास्तविक स्वरूप तो यह है मन में उठने वाली एक व्याकुल, चंचल और निरन्तर अस्थिर रहने वाली वायु की तरंग हूँ या इस चेतन मन के पीछे जो एक अवचेतन है, उसका प्रकाश अर्थात् प्रकट रूप हूँ ।। यदि चेतना के स्तर पर अर्थात् प्रत्यक्ष रूप से मुझे जानना चाहो तो यह समझ लो कि मानव अपनी स्थूल ज्ञानेन्द्रियों- आँख, नाक, जिह्वा आदि- द्वारा जिन सूक्ष्म विषयों के रूप, रंग, गन्ध, स्वाद आदि को ग्रहण करता है, वे सूक्ष्म विषय ही यदि एक सुन्दर कमल का रूप धारण करके साकार हो जाएँ तो वह मैं हूँ ।। सभी इन्द्रियों द्वारा भोगे जाने की रसास्वादिनी शान्ति मैं स्वयं हूँ ।। उर्वशी कहती है कि मैं क्षीरसागर से उत्पन्न हुई लक्ष्मी नहीं हूँ, जो तलातल, अतल, पाताल जैसे नीचे के लोकों को छोड़क, नील-सागर के जल को चीरती हुई श्वेत झलमलाते फेन (झाग) के बारीक रेशमी वस्त्रों में सुसज्जित होकर अपनी कान्ति छिटकाती तथा समुद्र की लहरों के मस्तक पर नाचती हुई निकली हो ।। मैं महातल से भी नहीं निकली हूँ ।।
काव्य-सौन्दर्य-1 . उर्वशी अपना परिचय लाक्षणिक शैली में देती है, जो पुरूरवा सहित सबके मन में जिज्ञासा भर देता है ।।
2 . वह यह बताना चाहती है कि वह स्थूल पंचतत्वों से बनी हुई नहीं है, अपितु सूक्ष्म प्रकाशमय देहधारिणी है ।।
3 . भाषाखड़ीबोली ।।
4 . रस- शृंगार ।।
5 . शब्द-शक्ति – लक्षणा ।।
6 . गुण- प्रसाद ।।
7 . अलंकार- रूपक और अनुप्रास ।।
8 . छन्दमुक्त ।।
9 . पृथ्वी के नीचे सात अधोलोक इस प्रकार है- अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल और पाताल ।।
(घ) मैं नहीं गगन . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . सागर मे समुद्रभूत ।।
मैं नहीं गगन की लता
तारकों में पुलकिता फूलती हुई,
मैं नहीं व्योमपुर की बाला,
विधु की तनया, चन्द्रिका-संग,
पूर्णिमा-सिन्धु की परमोज्ज्वल आभा-तरंग,
मैं नहीं किरण के तारों पर झूलती हुई भू पर उतरी ।
मैं नाम-गोत्र से रहित पुष्प,
अम्बर में उड़ती हुई मुक्त आनन्द-शिखा
इतिवृत्त हीन,
सौन्दर्य-चेतना की तरंग;
सुर-नर-किन्नर-गन्धर्व नहीं,
प्रिय! मैं केवल अप्सरा
विश्वनर के अतृप्त इच्छा-सागर से समुद्भूत ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इन पद्य-पंक्तियों में उर्वशी पुरूरवा को अपना परिचय दे रही है ।।
व्याख्या- मैं नक्षत्रों के बीच में रहकर प्रसन्नतापूर्वक फलने-फूलने वाली आकाश की लता नहीं हूँ, न मैं आकाश में स्थित किसी नगर से उतरी युवती हूँ, न ही मैं चन्द्रमा की पुत्री हूँ, जो चाँदनी के साथ चन्द्रकिरणरूपी तारों पर लटककर पृथ्वी पर उतरी हो और न ही मैं पूर्णिमा के चन्द्रमा के उज्जवल प्रकाशरूपी सागर की हिलोरे लेती लहर हूँ ।। मैं एक ऐसा पुष्प हूँ, जिसका न कोई नाम है और न ही कोई वेश ।। मैं आकाश में उड़ती हुई स्वच्छन्द आनन्द की शिखा (लौ) हूँ ।। मैं स्वयं आनन्द का स्वरूप हूँ, जिसका कोई पिछला इतिहास (या जीवन-वृत्तान्त) नहीं ।। मानव ने जिस सौन्दर्य की ऊँचीसे-ऊँची कल्पनाएँ की हैं, मैं उस सौन्दर्य-चेतना की एक लहर हूँ ।। मैं देवता, किन्नर, गन्धर्व या मनुष्य भी नहीं हूँ ।। मैं तो मानव के हृदय में सुखोपभोग की अतृप्त इच्छाओं का जो सागर लहरा रहा है, उसी से उत्पन्न हुई केवल एक अप्सरा हूँ ।।
काव्य-सौन्दर्य-1 . उर्वशी के परिचय में कवि द्वारा उच्च कोटि के कलात्मक बिम्ब सँजोये गये हैं ।।
2 . उर्वशी का अभिप्राय यह है कि मनुष्य की सुखोपभोग की अतृप्त इच्छाओं ने सौन्दर्य की जो चरम कल्पना की है, मैं वह हूँ, जिसे पाकर मानव पूर्णत: तृप्त हो सकता है ।।
3 . भाषा- साहित्यिक खड़ीबोली ।।
4 . रस- शृंगार ।।
5 . शब्द-शक्ति- लक्षणा ।।
6 . गुण- प्रसाद ।।
7 . अलंकार-रूपक ।।
8 . छन्द-मुक्त ।।
जन जन …………………………… गिर जाते है |
जन-जन के मन की मधुर वह्नि, प्रत्येक हृदय की उजियाली,
नारी की मैं कल्पना चरम नर के मन में बसने वाली।
विषधर के फण पर अमृतवर्ति;
उद्धत, अदम्य, बर्बर बल पर
रूपांकुश, क्षीण मृणाल-तार।
मेरे सम्मुख नत हो रहते गजराज मत्त;
केसरी, शरभ, शार्दूल भूल निज हिंस्र भाव
गृह-मृग समान निर्विष, अहिंस्र बनकर जीते।
‘मेरी भ्रू-स्मिति को देख चकित, विस्मित, विभोर
शूरमा निमिष खोले अवाक् रह जाते हैं;
श्लथ हो जाता स्वयमेव शिंजिनी का कसाव,
संस्रस्त करों से धनुष-बाण गिर जाते हैं ।
सन्दर्भ – पहले की तरह
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से उर्वशी द्वारा पुरूरवा के समक्ष अपने वों को प्रकट करता हुआ दिखाया जा रहा है।
व्याख्या — उर्वशी स्पष्ट रूप से अपने भावों की अभिव्यक्ति करते हुए कहती हैं कि मैं प्रत्येक व्यक्ति के मन में प्रज्वलित होने वाली ऐसी आग हूँ, जो प्रत्येक व्यक्ति के मन तथा हृदय को प्रकाश देता है अर्थात् खुशियाँ प्रदान करता है। मैं मानव मन में नारी की कल्पना बनकर निवास करती हूँ। मैं साँप के फन पर लगा हुआ तिलक (जो बत्ती जैसा दिखाई देता है) हूँ अथवा मैं अपने सौन्दर्य से प्रचण्ड, प्रबल तथा क्रूर व्यक्तियों की शक्ति को कमल की नाल की भाँति कमजोर कर देती हूँ अर्थात् मैं व्यक्ति के प्रचण्ड, प्रबल तथा क्रूर रूप पर अपने सौन्दर्य रूप का अंकुश लगाती हूँ। मेरे समक्ष बड़े-से-बड़े समस्त हाथी भी सिर झुकाकर रहते हैं। सिंह, हाथी का बच्चा, चीता आदि सभी प्रकार के हिंसक पशु अपनी हिंसा की प्रवृत्ति को त्यागकर मेरे समक्ष पालतू हिरन के समान अहिंसक बन जाते हैं। उर्वशी कहती है कि बड़े से बड़ा वीर भी मेरे भृकुटी-संचालन को देखकर आश्चर्यचकित भाव से देखता रह जाता है और वह कुछ बोल तक नहीं पाता अर्थात् वह मूक हो जाता है। उसके धनुष की डोर भी स्वयं ढीली पड़ जाती है तथा उसके ढीले (शिथिल) हाथों से धनुष-बाण गिर जाते हैं। कहने का आशय यह है कि मेरा सौन्दर्य सभी को आकर्षित कर देता है।
काव्य सौन्दर्य
1- प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने उर्मिला के रूप सौन्दर्य का भावपूर्ण शैली में वर्णन । किया है।
2- रस शृंगार
३- भाषा साहित्यिक खड़ीबोली
4- शैली प्रबन्धात्मक छन्द मुक्त
5- अलंकार पुनरुक्तिप्रकाश, रूपक, उपमा एवं मानवीकरण
6- गुण प्रसाद
7- शब्द शक्ति लक्षणा
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(ङ) कामना-वह्नि . . . . . . . . . . मेरा उर ।।
कामना-वह्नि की शिखा मुक्त मैं अनवरुद्ध
मैं अप्रतिहत, मैं दुर्निवार;
मैं सदा घूमती फिरती हूँ
पवनान्दोलित वारिद-तरंग पर समासीन
नीहार-आवरण में अम्बर के आर-पार,
उड़ते मेघों को दौड़ बाहुओं में भरती,
स्वप्नों की प्रतिमाओं का आलिंगन करती ।
विस्तीर्ण सिन्धु के बीच शून्य, एकान्त द्वीप,
यह मेरा उर ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- प्रस्तुत पद्यांश में उर्वशी अपने प्रभाव का वर्णन कर रही है ।।
व्याख्या- मैं मानव की इच्छारूपी अग्नि की लपट हूँ, जो पूर्णतः स्वच्छन्द है, अवरोधहीन है ।। मुझे न कोई रोक सकता है, न मेरे पथ से मुझे हटा सकता है ।। मैं वायु के झकारों से प्रेरित मेघरूपी लहरों पर बैठकर कुहरे की चादर में लिपटी आकाश के आर-पार सदा उन्मुक्त भाव से विचरण करती रहती हूँ ।। मैं उड़ते बादलों को अपनी बाहों में भर लेती हूँ और स्वप्नों (कल्पनाओं) की मूर्तियाँ का आलिंगन करती हूँ; अर्थात् मनुष्य अपने मन में जो-जो कल्पनाएँ सँजोता है, उन्हें मैं साकार रूप देती हूँ ।।
मेरा हृदय उस निर्जन द्वीप के समान है, जो विस्तृत सागर में किसी एकान्त स्थान पर स्थित हो; अर्थात् जैसे उस द्वीप तक कोई असीम साहसी व्यक्ति ही पहुँच सकता है, वैसे ही मेरे हृदय में भी कोई विशिष्ट व्यक्ति ही स्थान पा सकता है ।।
काव्य-सौन्दर्य-1 . उर्वशी के कहने का आशय यह है कि अप्सरा की गति अवरोधहीन होती है ।। उसे कोई रोककर नहीं रख सकता; क्योंकि वह किसी से बँधी नहीं है ।। हाँ, उसे तो वही पा सकता है, जो उसके हृदय को जीत ले; ऐसा कोई विरला ही कर पाता है ।।
2 . उर्वशी के रूप में अप्सरा का यह वर्णन पुराणों द्वारा अनुमोदित है ।।
3 . भाषा- साहित्यिक खड़ीबोली ।।
4 . रसशृंगार ।।
5 . शब्द-शक्ति – लक्षणा ।।
6 . गुण- प्रसाद ।।
7 . अलंकार-रूपक ।।
8 . छन्द-मुक्त ।।
(च) देवालय में . . . . . . . . . . . . . . . . . विजय का है ।।
देवालय में देवता नहीं, केवल मैं हूँ ।
‘मेरी प्रतिमा को घेर उठ रही अगुरु-गन्ध,
बज रहा अर्चना में मेरी मेरा नूपुर।
भू-नभ का सब संगीत नाद मेरे निस्सीम प्रणय का है,
सारी कविता जयगान एक मेरी त्रयलोक-विजय का है ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग-उर्वशी नारी-सौन्दर्य की विश्वव्यापिनी शक्ति का वर्णन करती हुई कहती है कि मानव विभिन्न रूपों में केवल नारी की ही पूजा करता आ रहा है ।।
व्याख्या- मन्दिरों में देवताओं का नहीं, प्रत्युत मेरा ही वास है ।। तात्पर्य यह है कि देव-प्रतिमाएँ मानव की सौन्दर्य चेतना का परिणाम हैं और इस सौन्दर्य-चेतना का मूल आधार है- नारी ।। इस प्रकार मन्दिरों में देव-प्रतिमाओं के बहाने मानव वस्तुतः सौन्दर्य की साकार रूप नारी को ही श्रद्धा-सुमन अर्पित करता है ।। देव-प्रतिमाओं के रूप में मेरी ही प्रतिमा को अगरु का सुगन्धित धूम अर्पित किया जाता है ।। मेरी पूजा में मेरे ही घुघरू बजते हैं; अर्थात् मन्दिरों में देवदासियों द्वारा प्रतिमाओं के सम्मुख नृत्य वस्तुतः नारी की नारी द्वारा ही पूजा है ।। आशय यह है कि संगीत, नृत्य आदि समस्त कलाओं की प्रेरक शक्ति नारी है और नारी को ही वे अर्पित भी होती हैं ।। इस प्रकार पृथ्वी से लेकर आकाश तक संगीत की जो ध्वनि व्याप्त है, वह सब मेरे ही असीम प्रेम से प्रेरित है (अर्थात् नारी के प्रेम की प्रेरणा ही विश्व में संगीत, नृत्य आदि समस्त ललित-कलाओं की सृष्टि का कारण बनी) ।। संसार का समस्त काव्य वस्तुत: मेरे ही त्रैलोक्य-विजय का जयगान है (अर्थात् सारा काव्य नारी की ही दिग्विजय की अमर गाथा है, जयघोष है ।। उसका मुख्य विषय नारी का सौन्दर्य और प्रेम ही है) ।।
काव्य-सौन्दर्य-1 . नारी को इतने आत्मविश्वास से पूरित दर्शाना दिनकर जी का नारी के प्रति निजी सम्मान भाव है ।। पूर्ववर्ती कवि तो नारी को या तो विलास या फिर दया की पात्र ही मानते आये हैं ।।
2 . दिनकर जी ने अपने अद्भुत काव्य-कौशल से संसार के समस्त साहित्य, कला और संस्कृति की मूल प्रेरक शक्ति नारी को ही बताया है ।।
3 . भाषा-साहित्यिक खड़ीबोली ।।
4 . रस- शृंगार ।।
5 . शब्द-शक्ति- लक्षणा ।।
6 . गुण- प्रसाद ।।
7 . अलंकार- विरोधाभास (बज रहा अर्चना मे मेरा नुपूर) ।।
8 . छन्द- मुक्त ।।
(छ) है बहुत बरसी . . . . . . . . . . . . . . भी पुरानी राह ।।
है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार,
पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार।
भोग-लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम,
बह रही असहाय नर की भावना निष्काम
भीष्म हों अथवा युधिष्ठिर, या कि हों भगवान,
बुद्ध हों कि अशोक, गाँधी हों कि ईस महान
सिर झुका सबको, सभी को श्रेष्ठ निज से मान,
मात्र वाचिक ही उन्हें देता हुआ सम्मान,
दग्ध कर पर को, स्वयं भी भोगता दुख-दाह,
जा रहा मानव चला अब भी पुरानी राह।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ के ‘रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित काव्यग्रन्थ ‘कुरुक्षेत्र के छठे सर्ग से ‘अभिनव मनुष्य’ नामक शीर्षक से उद्धृत है ।।
प्रसंग- प्रस्तुत पद्यांश में आज के मानव की निस्समी आवश्यकताओं और लालसाओं का वर्णन किया गया है ।।
व्याख्या-दिनकर जी कहते हैं कि इस संसार में अनेक महात्माओं ने समय-समय पर जन्म लेकर अपने उपदेशों की अमृत वर्षा की है, किन्तु उससे आज तक भी इस संसार में शान्ति स्थापित न हो सकी ।। आज प्रत्येक मनुष्य ईर्ष्या, द्वेष, कपट, छल, धोखा और घृणा की अग्नि में निरन्तर जल रहा है ।। उन अवतारी पुरुषों और ज्ञानी महात्माओं के अमृतवचन मनुष्य के हृदय में स्थित राग-द्वेष और भोग-लिप्सा की लपलपाती प्रचण्ड अग्नि को शीतल न कर सके अर्थात् मनुष्य को भोग-लिप्सा से मुक्त न कर सके ।। महापुरुषों ने सदैव ही इस संसार को समता का उपदेश दिया है, किन्तु कहीं भी उनका उपदेश फलीभूत होता दृष्टिगत नहीं होता ।। यहाँ सब जगह एक ओर तो धनी-मानी साधनसम्पन्न लोग निरन्तर भोग-विलास में डूबे मिलेंगे, जिनकी नए-नए भोगों को भोगने की लिप्सा निरन्तर बलवती होती जाती है ।। वहीं दूसरी ओर ऐसे असहाय, साधनहीन, विवश मनुष्य भी मिलते हैं, जिनकी कोई भी कामना फलीभूत नहीं होती; जो भोग-विलास तो दूर, दो जून की रोटी के लिए भी तरसते हैं ।। दिनरात जीतोड़ परिश्रम करने पर भी उनके मनोरथ निष्फल रहते हैं ।। इस प्रकार अवतारी, सिद्ध, ज्ञानी-ध्येय, महापुरुषों के समानता, सहयोग, त्याग तथा सहानुभूति के अमृत सदृश उपदेश निष्फल ही रहे ।।
इस पृथ्वी पर समय-समय पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लेकर अपने पवित्र, शुद्ध-बुद्ध, श्रेष्ठ आचरण के द्वारा लोगों को यह समझाया कि परोपकार, दया, अहिंसा, प्रेम और कर्मनिष्ठा ही श्रेष्ठ जीवन के मूलतत्त्व हैं, इन्हीं को अंगीकार करके जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है ।। दृढ़-निश्चयी भीष्म, सत्यनिष्ठ युधिष्ठिर, निष्काम कर्मनिष्ठा के प्रवर्तक भगवान् कृष्ण, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आदर्श का श्रेष्ठ प्रतिमान प्रस्तुत करने वाले भगवान् श्रीराम; सत्य, अहिंसा एवं प्रेम का सन्देश देनेवाले महात्मा गौतम बुद्ध, सम्राट अशोक और प्रभु यीशु ऐसे ही पुरुष हैं; जिन्होंने समय-समय पर अपने जन्म से इस धरा को पुण्य बनाकर संसार का पथ-प्रदर्शन किया ।। मनुष्य ने सिर झुकाकर अत्यधिक सम्मान और श्रद्धा के साथ इन सभी महापुरुषों की श्रेष्ठता को स्वीकार किया, किन्तु विडम्बना यह है कि इन्होंने उनकी श्रेष्ठता को केवल मौखिक रूप में अंगीकार किया, उसका लेशमात्र भी अपने आचरण में नहीं उतारा ।। अपनी कथनी-करनी के इसी अन्तर के कारण वह दूसरे लोगों का शोषण करके उन्हें पीड़ा पहुँचाया है ।। दूसरों को दु:खों की आग में झोककर वह स्वयं भी उस आग में जलता है ।। वह आज भी अपने आदिम-युग के क्रूर, निर्मम एवं पशुत्व-मार्ग पर चल रहा है ।।
काव्य-सौन्दर्य-1 . मानव अपने दुःखों का निर्मित्त स्वयं है और उनका एकमात्र निदान आचरण की शुद्धता और पवित्रता है ।। 2 . भाषा- साहित्यिक खड़ीबोली ।।
3 . शैली- प्रबन्धात्मक ।।
4 . अलंकार- रूपक, दृष्टान्त एवं अनुप्रास ।।
5 . रस- वीर एवं शान्त ।।
6 . छन्द- मुक्त ।।
7 . गुण-ओज एवं प्रसाद ।।
8 . शब्दशक्ति- अभिधा एवं लक्षणा ।।
(ज) शीश पर आदेश . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . गुह्यतम इतिहास ।।
शीश पर आदेश कर अवधार्य,
प्रकृति के बस तत्त्व करते हैं मनुज के कार्य ।
मानते हैं हुक्म मानव का महा वरुणेश,
और करता शब्दगुण अम्बर वहन सन्देश ।
नव्य नर की मुष्टि में विकराल,
हैं सिमटते जा रहे प्रत्येक क्षण दिक्काल
यह मनुज, जिसका गगन में जा रहा है यान,
काँपते जिसके करों को देखकर परमाणु ।
खोलकर अपना हृदयगिरि, सिन्धु, भू, आकाश,
हैं सुना जिसको चुके निज गुह्यतम इतिहास ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- प्रस्तुत पद्यांश में आधुनिक मानव की अतुलित शक्तियों का ओजपूर्ण भाषा में वर्णन किया गया है ।।
व्याख्या- ‘दिनकर’ जी कहते हैं कि आधुनिक मनुष्य इतना शक्तिसम्पन्न है कि उससे घबराकर प्रकृति के सभी तत्व उसके आदेश को अपने सिर पर धारण करते हैं अर्थात् उसका आदेश मानते हैं और उसकी इच्छा के अनुरूप उसके सभी कार्य करते हैं ।। आज महान् जलदेवता मनुष्य का हुक्म मानते हैं अर्थात् वह जहाँ चाहता है, वहाँ जल को उपस्थित कर देता है और जहाँ जल का अथाह सागर लहराता है, वहाँ नदियों आदि पर बाँध बनाकर वह विस्तृत सूखे मैदान बनाने में सक्षम है ।। यहाँ तक कि अपनी इच्छानुसार जल बरसाने तक की विद्या को उसने प्राप्त कर लिया है ।। शब्द को ग्रहण करने के गुणों से सम्पन्न आकाश रेडियो एवं दूरभाष आदि के द्वारा उसके सन्देशों को उसकी इच्छानुसार वहन करके उसके इच्छित स्थान तक पहुँचा देता है ।। इस आधुनिक मनुष्य की विशाल मुट्ठी में सभी दिशाएँ एवं समय प्रतिक्षण सिमटते जा रहे हैं ।। आज इस मनुष्य के अगाध समुद्र में ही नहीं, वरन् निस्सीम आकाश में भी यान (वायुयान) विचरण करते हैं अर्थात् वह पक्षी की भाँति आकाश में स्वच्छन्द विचरण करता है ।। वह आज इतना शक्तिसम्पन्न है कि उसके हाथों को देखकर परमशक्तिसम्पन्न परमाणु भी भय से थर-थर काँपने लगता है ।। आज मनुष्य की बुद्धि, शोधपरक प्रवृत्ति एवं साहसपूर्ण कार्यों को फलस्वरूप पर्वत, सागर एवं आकाश भी हृदय खोलकर अपना गुप्त इतिहास बता चुके हैं ।।
काव्य-सौन्दर्य-1 . मनुष्य द्वारा की गई वैज्ञानिक प्रगति का उल्लेख किया गया है ।। यहाँ नदियों पर बनाए गए बाँध, रेडियो, दूरभाष आदि के क्षेत्रों में की गई प्रगति, हवाई जहाज आदि परिवहन के क्षेत्र में हुई प्रगति और परमाणु शक्ति के क्षेत्र में हुई क्रान्ति का विशेष रूप से संकेत किया गया है ।।
2 . भाषा- साहित्यिक खड़ीबोली ।।
3 . शैली- प्रबन्धात्मक ।।
4 . अलंकारअनुप्रास मानवीकरण ।।
5 . रस- वीर ।।
6 . छन्द-मुक्त ।।
7 . गुण-ओज ।।
8 . शब्दशक्ति- अभिधा एवं लक्षणा ।।
(झ) पर, धरा सुपरीक्षिता . . . . . . . . . . . . पृष्ठ जिसके खोल ।।
पर, धरा सुपरीक्षिता, विश्लिष्ट स्वादविहीन,
यह पढ़ी पोथी न दे सकती प्रवेग नवीन ।
एक लघु हस्तामलक यह भूमि-मण्डल गोल,
मानवों ने पढ़ लिए सब पृष्ठ जिसके खोल ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- प्रस्तुत पद्यांश में मनुष्य द्वारा पृथ्वी के सम्पूर्ण रहस्यों को जान लेने का उद्घाटन किया गया है ।।
व्याख्या – ‘दिनकर जी’ कहते हैं कि मनुष्य की प्रवृत्ति प्रगति के नित नए क्षेत्र खोजने की रही है, इसी के परिणामस्वरूप उसने सम्पूर्ण पृथ्वी की जाँच-परख करके देख ली है, उसका विश्लेषण कर लिया है, किन्तु अब पृथ्वी पर ऐसा कोई तथ्य नहीं रहा है, जिसे मनुष्य ने जान नहीं लिया, इसीलिए अब पृथ्वी उसे स्वादहीन खाद्य वस्तु जैसी लगती है ।। कहने का आशय यह है कि मनुष्य ने क्योकि पृथ्वी के सभी रहस्य जान लिये हैं; अतः वैज्ञानिक प्रगति की दृष्टि से उनके लिए पृथ्वी में कोई आकर्षण नहीं बचा सका है ।। उसने इस पृथ्वी के रहस्यों सम्बन्धी सारी जानकारियाँ उसी प्रकार प्राप्त कर ली हैं, जिस प्रकार पुस्तक पढ़कर सभी उसका ज्ञान आसानी से प्राप्त कर लेते हैं ।। पृथ्वी पर क्योंकि कुछ भी अज्ञेय नहीं रहा है ।। अत: नवीन वैज्ञानिक प्रगति हेतु शोध के सन्दर्भ में अब कोई क्षेत्र नहीं बचा है ।। अब मनुष्य के लिए पृथ्वी की जानकारियाँ ऐसी सुलभ हो गई हैं; जैसे वह हथेली पर रखा गोल-मटोर छोटा-सा आँवला हो ।। निष्कर्ष यही है कि मनुष्य ने पृथ्वीरूपी पुस्तक का एक-एक पृष्ठ पढ़कर उसको कण्ठस्थ रख लिया है ।।
काव्य-सौन्दर्य-1 . पृथ्वी सम्बन्धी हुई विपुल वैज्ञानिक खोजों के द्वारा पृथ्वी के सभी रहस्यों को जान लेने की तुलना पुस्तक पढ़ने से की गई है जो कि अत्यन्त सटीक बन रही है ।।
2 . भाषा- साहित्यिक खड़ीबोली ।।
3 . शैली- प्रबन्धात्मक ।।
4 . अलंकार- उपमा, रूपक ।।
5 . रस-वीर ।।
6 . छन्द- मुक्त ।।
7 . गुण-ओज ।।
8 . शब्दशक्ति -अभिधा एवं लक्षणा ।।
किन्तु ………………………………………… जग विस्तीर्ण |
किन्तु, नर-प्रज्ञा सदा गतिशालिनी, उद्दाम,
ले नहीं सकती कहीं रुक एक पल विश्राम।
यह परीक्षित भूमि, यह पोथी पठित, प्राचीन,
सोचने को दे उसे अब बात कौन नवीन?
यह लघुग्रह भूमिमण्डल, व्योम यह संकीर्ण,
चाहिए नर को नया कुछ और जग विस्तीर्ण ।
सन्दर्भ – पहले की तरह
प्रसंग – कवि इस बात पर जोर देना चाहता है कि मानव ने अत्यधिक प्रगति कर ली है। उसने सम्पूर्ण सृष्टि से सम्बन्धित ज्ञान प्राप्त कर लिया है और आज भी वह और अधिक ज्ञान को प्राप्त करने के लिए सतत् प्रयत्नशील है। ।
व्याख्या – प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि दिनकर जी यह कहना चाहते हैं कि मानव की बुद्धि निरन्तर तीव्रगति से चलती रहती है। वह एक पल के लिए भी नहीं रुक सकता, उसकी बुद्धि एक क्षण के लिए भी विश्राम नहीं लेती। मनुष्य ने इस धरतीरूपी पुस्तक को भली-भाँति तरीके से पढ़ लिया है और यह उसके लिए पुरानी पड़ चुकी है अर्थात अब इस धरती से सम्बन्धित तथ्यों को जानना शेष नहीं रह गया। है। इसके बारे में वह सभी चीजों को जान एवं समझ चुका है। अब उसके चिन्तन के लिए कोई भी बात नई नहीं रह गई है, सभी पुरानी पड़ चुकी हैं।
मात्र छोटा-सा ग्रह बन गया है। यह विस्तृत आकाश अब उसके लिए सिकुड़ गया है, सीमित हो गया है। अब आज का मानव अपनी गतिविधियों के विस्तार के लिए कोई नया क्षेत्र चाहता है। वह अधिक नवीन एवं व्यापकnसंसार चाहता है, जिसके बारे में वह नई चीजों को जान सके। वह नए एवंnविस्तृत संसार को खोजने के लिए सतत् प्रयत्नशील है।
काव्य सौन्दर्य 1- प्रस्तुत पद्यांश के माध्यम से कवि ने मनुष्य के सतत् प्रयत्नशील भाव को उजागर किया है। जिसके द्वारा वह प्रतिदिन नई-नई चीजों को जानना चाहता है, नया ज्ञान प्राप्त करना चाहता है।
2- रस शान्त
३- भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली
4- शैली प्रबन्धात्मक
5- छन्द मुक्त
6- अलंकार रूपक, उपमा एवं अनुप्रास
7- गुण प्रसाद
8- शब्द शक्ति लक्षणा
यह मनुज,……………………………………….. मानव भी वही ।
यह मनुज, ब्रह्माण्ड का सबसे सुरम्य प्रकाश,
कुछ छिपा सकते न जिससे भूमि या आकाश।
यह मनुज, जिसकी शिखा उद्दाम,
कर रहे जिसको चराचर भक्तियुक्त प्रणाम।
यह मनुज, जो सृष्टि का श्रृंगार,
ज्ञान का, विज्ञान का, आलोक का आगार।
‘व्योम से पाताल तक सब कुछ इसे है ज्ञेय’,
पर न यह परिचय मनुज का, यह न उसका श्रेय।
श्रेय उसका बुद्धि पर चैतन्य उर की जीत:
श्रेय मानव की असीमित मानवों से प्रीत।
एक नर से दूसरे के बीच का व्यवधान
तोड़ दे जो, बस, वही ज्ञानी, वही विद्वान्,
और मानव भी वही ।
सन्दर्भ — पहले की तरह
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवि इस बात पर जोर देना चाहता है कि मानव ने अत्यधिक प्रगति कर ली है, उसने सम्पूर्ण सृष्टि से सम्बन्धित ज्ञान प्राप्त कर लिया है। वह इस सृष्टि का सर्वाधिक ज्ञानवान प्राणी है।
व्याख्या – कविवर दिनकर कहते हैं कि यह सत्य है कि मनुष्य इस सृष्टि की सबसे सुन्दर रचना है। यह विज्ञान से पूर्णत: परिचित हो चुका है। आकाश से लेकर पाताल तक कोई रहस्य शेष नहीं है, जो इससे छिपा हुआ हो, जो इसने जान न लिया हो। यह ज्ञान का अनुपम भण्डार है। चर और अचर सभी इसको भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हैं। यह मनुष्य सृष्टि का श्रृंगार है। ज्ञान और विज्ञान का अदभुत भण्डार है। इतना सब होते हुए भी यह इसका वास्तविक परिचय नहीं है और न ही इसमें उसकी कोई महानता ही है। उसकी महानता तो इसमें है कि वह अपनी बुद्धि की दासता से मुक्त हो और बुद्धि पर उसके हृदय का अधिकार हो अर्थात् वह बुद्धि के स्थान पर अपने हृदय का प्रयोग अधिक करे। वह असंख्य मानवों के प्रति अपना सच्चा प्रेम रखे। दिनकर जी के अनुसार, वही मनुष्य ज्ञानी है, विद्वान् है, जो मनुष्यों के बीच में बढ़ती हई दूरी को मिटा दे। वास्तव में वही मनुष्य श्रेष्ठ है, जो स्वयं को एकाकी न समझे, बल्कि सम्पूर्ण पृथ्वी को अपना परिवार समझे।
आज मनुष्य ने वैज्ञानिक उन्नति तो बहुत कर ली है, पर पारस्परिक प्रेमभाव। कम होता जा रहा है। कवि चाहता है कि मनुष्य की बुद्धि पर उसके हृदय का अधिकार हो जाए। वास्तव में ज्ञानी वही है, जो मानव-मानव के बीच अन्तर समाप्त कर दे।
काव्य सौन्दर्य
1- प्रस्तुत पद्यांश का मूल भाव यही है कि मानव विलक्षण बुद्धि का स्वामी है, वह नित्य नवीन ज्ञान प्राप्त करना चाहता है।
2- रस वीर एवं शान्त
३- भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली
4- शैली प्रबन्धात्मक
5- छन्द मुक्त
6- अलंकार रूपक
7- गुण ओज, प्रसाद
8- शब्द शक्ति लक्षणा और व्यंजना
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(ञ) सावधान, मनुष्य . . . . . . . . . . . . . . . . . . . बड़ी यह धार ।।
सावधान, मनुष्य! यदि विज्ञान है तलवार,
तो इसे दे फेंक, तजकर मोह, स्मृति के पार ।
हो चुका है सिद्ध, है तू शिशु अभी अज्ञान;
फूल काँटों की तुझे कुछ भी नहीं पहचान ।
खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार,
काट लेगा अंग, तीखी है बड़ी यह धार ।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- कविवर दिनकर ने इन पंक्तियों में बढ़ते वैज्ञानिक प्रयोगों के प्रति मानव को सचेत किया है ।। व्याख्या-विज्ञान ने व्यक्ति को नए-नए उपकरण दिए हैं, नवीन अस्त्र-शस्त्र तथा सुविधाएँ उपलब्ध कराई हैं ।। साथ ही विज्ञान ने विनाश की परिस्थितियाँ भी उत्पन्न की हैं ।। यदि मानव विज्ञान के साधनों का दुरुपयोग करेगा तो वे ही कल्याणकारी साधन मानव के विनाश का कारण बन जाएंगे ।। इसीलिए अभिनव मानव को सावधान करते हुए दिनकर जी कहते हैं कि हे मानव ! तू विज्ञानरूपी तीक्ष्ण धारवाली तलवार से खेल रहा है ।। इस विज्ञानरूपी तलवार का मोह त्यागकर तू इसे अपनी स्मृति से भी परे फेंक दे; अर्थात् इसे अपने से इतना दूर कर दे कि इसकी यादें भी शेष न रह जाएँ; क्योंकि यह किसी भी समय तेरे लिए हिंसक (विनाशकारी) हो सकती है ।। दिनकर जी कहते हैं कि हे मानव ! तेरी क्रियाओं और विज्ञान के उपयोग की पद्धति देखकर यह स्पष्ट हो चुका है कि इसके समक्ष तू अभी अबोध शिशु की भाँति है ।। तू फूल और काँटों के मध्य अन्तर करना भी नहीं जानता और काँटों को फूल समझकर उनकी ओर आकर्षित हो रहा है ।। इस विज्ञानरूपी तलवार की धार बहुत पैनी (तेज) है ।। अज्ञानी होने के कारण तू विज्ञान की इस तलवार को हाथ में लेकर खेलने में सक्षम नहीं है ।। तेरी तनिक-सी असावधानी से, इससे तेरे ही अंग कट सकते हैं ।।
काव्य-सौन्दर्य- 1 . कवि ने विज्ञान के विध्वंसात्मक रूप की निन्दा की है ।।
2 . कवि का मानना है कि विज्ञान का प्रयोग पूर्ण विवेक के साथ होना चाहिए, क्योंकि यदि विज्ञान हमारे लिए वरदान है तो उसके गलत प्रयोग से वह अभिशाप भी बन सकता है ।।
3 . भाषा-साहित्यिक खड़ीबोली ।।
4 . शैली- प्रतीकात्मक ।।
5 . अलंकार- रूपक ।।
6 . शब्दशक्ति- लक्षणा और व्यंजना ।।
7 . गुण-ओज ।।
8 . छन्द-मुक्त ।।
2 . निम्नलिखित सूक्तिपरक पंक्तियों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए
(क) जीत लेती रुपसी नारी उसे मुस्कान से ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित ‘रामधारी सिंह दिनकर’ द्वारा रचित ‘पुरूरवा’ नामक शीर्षक से अवतरित है ।।
प्रसंग- राजा पुरूरवा इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि पुरुष शक्तिशाली होने पर भी कोमल नारी से क्यों हार जाता है ।।
व्याख्या-राजा पुरूरवा का कहना है कि जो पुरुष सूर्य के समान तेजस्वी है, जो सिंहों के साथ खेल सकता है और यहाँ तक कि इन्द्र के वज्र-प्रहार को भी झेल सकता है, वह शक्तिशाली पुरुष फूल जैसी कोमल नारी के सामने असहाय क्यों हो जाता है? नारी उस शक्तिशाली पुरुष को अपने नयन-बाणों से मर्माहत कर देती है और एक हल्की मुस्कान से ही जीत लेती है, इसका कारण क्या है? क्या यह, पुरुष के भीतर स्वाभाविक रूप से निहित नारी के प्रति चिरन्तन प्राकृतिक आकर्षण तो नहीं ।।
(ख) देवालय में देवता नहीं, केवल मैं हूँ ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित ‘रामधारी सिंह दिनकर’ द्वारा रचित ‘उर्वशी’ नामक शीर्षक से अवतरित है ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्तिपरक पंक्ति में उर्वशी के शब्दों में दिनकर जी नारी-सौन्दर्य की विश्वव्यापी शक्ति का वर्णन कर रहे हैं ।।
व्याख्या- उर्वशी कह रही है कि मन्दिरों में देवताओं का नहीं, अपित मेरा ही वास है ।। आशय यह है कि देव-प्रतिमाएँ मनुष्य की सौन्दर्य चेतना का परिणाम है और इस सौन्दर्य चेतना का मूल आधार नारी है ।। इस प्रकार मन्दिरों में देव-प्रतिमाओं के विभिन्न रूपों में मनुष्य वस्तुतः सौन्दर्य की साकार प्रतिमा नारी को ही अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करता है ।। अतः स्पष्ट है कि देवालयों में देव-प्रतिमाओं के स्थान पर मुख्यत: नारी ही अधिष्ठित है ।।
(ग) प्रकृति पर सर्वत्र है विजयी पुरुष आसीन ।।
सन्दर्भ- प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘काव्यांजलि’ में संकलित ‘रामधारी सिंह दिनकर’ द्वारा रचित ‘अभिनव मनुष्य’ नामक शीर्षक से अवतरित है ।।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में मनुष्य की प्रकृति पर विजय-प्राप्ति और उसकी वैज्ञानिक प्रगति की ओर संकेत किया गया है ।।
व्याख्या-दिनकर जी कहते हैं कि आज का युग विज्ञान का युग है ।। वैज्ञानिक प्रगति के परिणामस्वरूप आज मनुष्य ने प्रकृति पर सब प्रकार से विजय प्राप्त कर ली है ।। मनुष्य ने सम्पूर्ण प्रकृति-पृथ्वी, जल, आकाश, पहाड़ इत्यादि सभी पर अपना अधिकार कर लिया है ।। आज मनुष्य इतनी प्रगति कर चुका है कि वह गर्मी और सर्दी के मौसम को भी अपने अनुकूल बना लेता है ।। दूरसंचार के माध्यमों से वह देश-विदेश की समसामयिक घटनाओं के बारे में अपने कक्ष में बैठे-बैठे ही सबकुछ जान लेता है ।। वह विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं- वर्षा, तूफान, सूखा इत्यादि को भी जानकारी समय से पूर्व ही प्राप्त कर उनसे बचने के लिए उपाय भी खोज लेता है ।। इस प्रकार मनुष्य ने सम्पूर्ण प्रकृति को अपने हाथों की कठपुतली बना लिया है ।।
(घ) किन्तु, नर-प्रज्ञा सदा गतिशालिनी, उद्दाम ।।
ले नहीं सकती कहीं रूक एक पल विश्राम ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इन पंक्तियों में मानव-स्वभाव का वर्णन किया गया है ।।
व्याख्या-कवि श्री दिनकर जी का कहना है कि मनुष्य की बुद्धि स्थिर नहीं रहती ।। वह सदैव गतिशील और दुःसाहसी है ।। इसलिए नित्य नयी चुनौतियों का आह्वान करके वह नये-नये क्षेत्रों को जीतना चाहती है ।। विश्राम करना तो वह जानती ही नहीं ।। आशय यह है कि मानव की इसी बौद्धिक बेचैनी में उसकी उन्नति का रहस्य भी छिपा है ।। यही बात प्रसाद जी ने इस प्रकार कही है इस पथ का उद्देश्य नहीं है,शान्त भवन में टिक रहना ।। किन्तु पहुँचना उस सीमा तक, जिसके आगे राह नहीं ।।
(ङ) ‘व्योम से पाताल तक सब कुछ इसे है ज्ञेय’
पर, न यह परिचय मनुज का, यह न उसका श्रेय ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में कवि ने मनुष्य की वैज्ञानिक प्रगति का उल्लेख करते हुए उसे चेतावनी दी है कि केवल इस प्रगति से उसका कल्याण होनेवाला नहीं है ।।
व्याख्या- कवि कहता है कि आज मनुष्य ने वैज्ञानिक प्रगति के बल पर इस संसार के विषय में सबकुछ जान लिया है ।। पृथ्वी के गर्भ से लेकर सुदूर अन्तरिक्ष तक के सभी रहस्यों का उसने उद्घाटन कर दिया है ।। चाँद-तारे, सूरज आदि की स्थिति को स्पष्ट कर दिया है कि आसमान में कहाँ और कैसे टिके हैं? पृथ्वी के गर्भ में जहाँ शीतल जल का अथाह भण्डार है, वहीं दहकता लावा भी विद्यमान है; किन्तु यह ज्ञान-विज्ञान तो मनुष्यता की पहचान नहीं है और न ही इनसे मानवता का कल्याण हो सकता है ।। संसार का कल्याण तो केवल इस बात में निहित है कि प्रत्येक मनुष्य प्राणिमात्र से स्नेह करे, उसे अपने समान ही समझे, यही मनुष्यता की अथवा मनुष्य होने की पहचान भी है, अन्यथा ज्ञान-विज्ञान की जानकारी तो एक कम्प्यूटर भी रखता है, मगर उसमें मानवीय संवेदनाएँ नहीं होती; अतः उसे मनुष्य नहीं कहा जा सकता ।।
(च) हो चुका है सिद्ध है तू शिशु अभी अज्ञान ।।
सन्दर्भ- पहले की तरह
प्रसंग- इस सूक्ति में कवि ने अज्ञानी मनुष्य को विज्ञान के दुरुपयोगों से बचने हेतु सचेत किया है ।।
व्याख्या- कवि मनुष्य को सचेत करते हुए कहता है कि यह सिद्ध हो चुका है कि तू अभी एक शिशु के समान अज्ञानी है ।। तू अपने को हाथों अपना सर्वनाश करने पर तुला है ।। तुझे फूल और काँटों की कुछ भी पहचान नहीं है; अर्थात् तुझे यह पहचान नहीं है कि तेरे लिए क्या लाभदायक है और क्या हानिकारक ।।
अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्न
1 . पुरूरवा ने उर्वशी को देखकर क्या कहा?
उत्तर – – राजा पुरूरवा की भेंट स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी से होती है, जिसको देखकर पुरूरवा मोहित हो जाते हैं ।। राजा पुरूरवा उर्वशी से कहते हैं कि मैं उस अंकुश या प्रतिबन्ध के विषय में नहीं जानता है कि वह कौन-सी शक्ति है, जो मुझे अपनी प्यास बुझाने से रोक रही है, मेरी स्थिति तो सरोवर के किनारे बैठे उस व्यक्ति के समान है जो प्यास से पीड़ित होने पर भी अपनी प्यास नहीं बुझा पाता है ।। मेरा बल सिन्धु के समान प्रबल और उद्दण्ड है, परंतु इस समय वह बल मेरा साथ छोड़कर चला गया है ।। मेरा सामर्थ्य और शक्ति का जय-जयकार सर्वत्र होता है, उस अटल और ध्रुव-निश्चय का सहारा इस समय कहाँ है? मेरा वक्षस्थल शिला के समान, भुजाएँ चट्टान की तरह, और मेरा मस्तक सूर्य के प्रकाश के समान है ।। मेरे प्राण अथाह और ऊँची एवं उछलती हुई तरंगों वाले सागर के समान अदम्य साहस और उत्साह से भरे हैं ।। मेरी शक्ति के सामने वनराज सिंह भी नहीं ठहरता ।। मेरे भय से पर्वत काँप जाते हैं और समयरूपी साँप कुण्डली मारकर काँपता रहता है ।। मेरी भुजाओं में वायु, गरुड़ और हाथी का बल है ।। मेरी शक्ति इस संसार में मानव की वीरता का परिचय देती है ।। मैं समय को आलोकित करने वाला सूर्य हूँ ।। मैं अंधकार का नाश करने में सक्षम हूँ तथा मेरी गति सर्वत्र है ।। परंतु हे उर्वशी ।। आज न जाने क्यों मैं इतना शक्तिहीन हो रहा हूँ ।। जो व्यक्ति इन्द्र के व्रज को झेल सकता है, सिंह को अपने बल से परास्त कर सकता है, वह पुष्प के समान नारी के सामने असहाय हो जाता है ।। शक्ति होते हुए भी उसे कोई उपाय नहीं सूझता ।। व्यक्ति सुन्दरी कह तिरछी दृष्टि के बाण से घायल हो जाता है ।। और सुन्दरी युवती उसे केवल एक मुस्कान से जीतकर वश में कर लेती है ।।
2 . उर्वशी ने पुरूरवा को जो अपना परिचय दिया है, उसे अपने शब्दों में लिखिए ।।
उत्तर – – उर्वशी पुरूरवा से कहती है कि मैं अपने विषय में क्या बताऊँ कि मैं कौन हूँ ।। शरीर का यह बाह्य सौन्दर्य एक दिखावा, छलावा और धोखा-मात्र है ।। मैं तो वास्तव में काल्पनिक और मानसिक देश की उत्कण्ठा और व्याकुलता से परिपूर्ण वायु हूँ ।। मैं अवचेतन प्राणों का प्रकाश हूँ और चेतना के जल में पूरी तरह से विकसित रूप, रस और सुगन्ध से परिपूर्ण कमल हूँ ।। मैं समुद्र पुत्री लक्ष्मी भी नहीं हूँ, जो पाताल को छोड़कर, समुद्र के नीले रंग को भेदकर, प्रकाशपूर्ण फेन के महीन रेशमी वस्त्र पहनकर, समुद्र की लहरों के मस्तक पर नाचती हुई निकली हूँ ।। मैं कोई आकाश में फलने वाली लता नहीं हूँ, और न ही मैं आकाश में स्थित किसी नगर की सुन्दरी हूँ, न मैं चन्द्रमा की पुत्री हूँ और न ही मैं पूर्णिमा के चन्द्रमा की किरणों से आकर्षित समुद्र में उठी चंचल लहर हूँ ।। मेरा न तो कोई नाम है और न ही गोत्र ।। मैं आकाश में उठती हुई साक्षात ज्वाला हूँ, जिसका कोई इतिहास नहीं है ।। मैं मन को उद्वेलित करने वाली तरंग हूँ ।। मेरी गणना देवताओं, मनुष्यों, गन्धर्वो, किन्नरों में नहीं है ।। हे प्रिय ।। मैं तो एक साधारण अप्सरा हूँ, जिसका जन्म सांसारिक प्राणियों अथवा वृक्ष की इच्छाओं के समुद्र से घिरा है ।। उर्वशी कहती हैं कि मैं प्रत्येक व्यक्ति के मन में जलनेवाली मीठी ज्वाला हूँ और प्रत्येक व्यक्ति के हृदय का प्रकाश हूँ ।। मैं मानव के मन में नारी की कल्पना बनकर निवास करती हूँ ।। मेरे सामने बड़े-बड़े हाथी भी सिर झुकाकर रहते हैं ।। सिंह, शरभ, और चीता जैसे हिंसक पशु भी अपनी हिंसावृत्ति को त्यागकर मेरे सामने पालतू हिरन के समान बन जाते हैं ।। उर्वशी कहती है कि देवालयों में देवताओं के स्थान पर मैं ही विद्यमान हूँ ।। मेरी प्रतिमा के सामने ही अगर नामक सुगन्धित द्रव्य जलता रहता है ।। धरती और आकाश में उठने वाले संगीत का स्वर मेरे असीम प्रेम से उत्पन्न हुआ है ।। इस प्रकार उर्वशी ने स्वयं को पृथ्वी के कण-कण में व्याप्त बताकर अपना परिचय दिया ।।
3 . अभिनव मनुष्य की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए ।।
उत्तर – – अभिनव मनुष्य ने आज प्रकृति पर सर्वत्र विजय प्राप्त कर ली है ।। मनुष्य के हाथों आज जल, बिजली, दूरी, वातावरण का ताप आदि सभी कुछ बँधे हुए हैं ।। आज मनुष्य इतना साधनसम्पन्न है कि वह गर्मी और सर्दी के मौसम को भी अपने अनुकूल बना लेता है ।। वह नदी, पर्वत और समुद्र को समान भाव से बिना किसी व्यवधान के लाँघ सकता है ।। आज महान जलदेवता मनुष्य का हुक्म मानते हैं ।। शब्द को ग्रहण करने के गुणों से सम्पन्न आकाश रेडियो एवं दूरभाष आदि के द्वारा मनुष्यों के सन्देशों को उसकी इच्छानुसार वहन करके इच्छित स्थान तक पहुँचा देता है ।। मनुष्य आज इतना शक्ति सम्पन्न है कि उसके हाथों को देखकर परम-शक्तिशाली परमाणु भी भय से थर-थर काँपने लगता है ।।
4 . कवि ने अभिनव मनुष्य को क्यों सावधान किया है? स्पष्ट कीजिए ।।
उत्तर – – कवि ने अभिनव मनुष्य को इसलिए सावधान किया है; क्योंकि यदि मानव ने विज्ञान के साधनों का दुरुपयोग किया तो वे कल्याणकारी साधन ही मानव के विनाश का कारण बन जाएंगे ।। दिनकर जी मनुष्य को सावधान करते हैं कि इस विज्ञानरूपी तलवार की धार बहुत तेज है ।। अज्ञानता के कारण तू इस तलवार को हाथ में लेकर खेलने में सक्षम नहीं है ।। तेरी तनिक-सी भी असावधानी से, तेरे ही अंग कट सकते हैं ।।
काव्य-सौन्दर्य से संबंधित प्रश्न
1 . “कौन है अंकुश . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . सबंल कहाँ है? “पंक्तियों में निहित रस व उसका स्थायी भाव लिखिए ।।
उत्तर – – प्रस्तुत पंक्तियों में वीर रस है जिसका स्थायी भाव उत्साह है ।।
2 . “पर, क्या बोलूँ? . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . से निकली ।। “पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार का नाम लिखिए ।।
उत्तर – – प्रस्तुत पंक्तियों में रूपक और अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है ।।
3 . “भीष्म हों अथवा . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . पुरानी राह ।। ” पंक्तियों में प्रयुक्त छन्द बताइए ।।
उत्तर – – प्रस्तुत पंक्तियों में मुक्त छन्द का प्रयोग हुआ है ।।
4 . “किन्तु नर-प्रज्ञा . . . . . . . . . . . . . . . . . . . जग विस्तीर्ण ।। “पंक्तियों का काव्य-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।।
उत्तर – – काव्य-सौन्दर्य- 1 . मानव की बुद्धि बहुत विलक्षण है ।। वह नित्यप्रति नवीनतम ज्ञान का जिज्ञासु है और ज्ञान प्राप्त करके ही उसे सन्तोष प्राप्त होता है ।।
2 . भाषा-साहित्यिक खड़ीबोली ।।
3 . अलंकार- रूपक, उपमा और अनुप्रास ।।
4 . शब्द-शक्ति लक्षणा ।।
5 . गुण- प्रसाद ।।
6 . छन्द- मुक्त ।।
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